महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
ऋषभ की कथा
नाभि के बेटे ऋषभ अपने समय के बहुत बड़े बुद्धिमान और ज्ञानी महापुरुष थे। उन्होंने देखा कि मनुष्य अब तरह-तरह का काम करना जान तो गया है, परन्तु सब काम एक साथ करने के हौसले में वह कोई भी काम ढंग से नहीं कर पाता था। राजा ऋषभ ने समाज में कामों का बंटवारा किया। कुछ लोग केवल खेती ही करने लगे और कुछ लड़ने और राम-काज चलाने की विद्या में निपुण हुए, कुछ लिखने-पढ़ने के काम में और कुछ तरह-तरह के व्यवसाय वाणिज्य के धन्धों में लगे। इस प्रकार समाज में व्यवस्था आने से मनुष्य समाज की सामूहिक उन्नति हुई। यह ऋषभदेव एक बार अपने राज दरबार में बैठे हुए नर्तकी का नाच देख रहे थे। वह नर्तकी जैसी अनुपम सुन्दरी थी वैसी ही अनोखी नाचने वाली भी थी। राजा ऋषभदेव उसकी कला और व्यवहार से बहुत खुश थे। एकाएक नाचते-नाचते वह नर्तकी धड़ाम से धरती पर गिर पड़ी। घबरा कर बहुत से लोग उसे उठाने के लिए आये लेकिन देखा कि वह तो निष्प्राण हो चुकी है। सभा में उपस्थित हर आदमी के मन को गहरा धक्का लगा। मगर राजा ऋषभ देव की मानो दुनिया ही बदल गई। वह सोचने लगे कि कितनी सुन्दर काया थी और उससे कितनी ऊंची कला का सुन्दर प्रदर्शन हो रहा था। काया तो अब भी सामने पड़ी हुई है, उसके अन्दर प्रदर्शन करने वाला जीव कहाँ गया? मैं राजा हूं, मुझसे पूछे बिना कोई काम नहीं होता है, परन्तु इस काया के भीतर रहने वाला जीव राजाज्ञा की परवाह किये बिना ही निकल गया। क्या राजा से भी बड़ी कोई सत्ता है? इस प्रश्न ने राजा ऋषभदेव को तपस्वी बना दिया। उन्होंने अपना राजपाट अपने बेटे भरत को सौंपकर मगध देश की राह पकड़ी और एक ऊंची पहाड़ी पर जाकर एकांत में कठोर तपस्या करने लगे। वे अपने समय के श्रेष्ठ सिद्ध पुरुष हुए। उनकी प्रशंसा में वेद में ऋचाएं तक लिखी गयीं और बाद में उनकी तपस्या पद्धति को ही जैन धर्म माना गया। ऋषभदेव आदिनाथ भगवान के नाम से भी पुकारे जाते हैं। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | विषय का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज