महाभारत कथा -अमृतलाल नागर
युद्ध की ओर
दूसरे दिन राज सभा में उन्होंने अपना शान्ति प्रस्ताव औपचारिक रूप से रखा। दुर्योधन और उसके गुट के लोग यह नहीं चाहते थे कि श्रीकृष्ण के प्रस्ताव पर सभा में विचार हो। उन्हें भय था कि भीष्म, विदुर आदि के प्रभाव में आकर धृतराष्ट्र कहीं श्रीकृष्ण का प्रस्ताव मान न लें। इसलिए वे लोग झूठमूठ की गर्मागर्मी बरतने लगे। श्रीकृष्ण ने तब कौरवों को भरी सभा में खूब खरी-खोटी सुनाई। उन्होंने धृतराष्ट्र को सचेत किया यदि वे अपने पुत्रों को सही ढंग से नहीं चलायेंगे तो निश्चय ही कौरव कुल का नाश हो जायगा। दुर्योधन ने तड़प कर अपने सेवकों को आज्ञा दी कि श्रीकृष्ण को क़ैद कर लिया जाय। सभा में हंगामा मच गया। लेकिन जान पड़ता है विदुर और श्रीकृष्ण इस प्रकार की दुर्घटना के लिए पहले से ही तैयार होकर आये थे। राज सभा में ऐसा चमत्कारिक उलट फेर हुआ कि सिपाही श्रीकृष्ण के धोखे में जिस-तिस को पकड़ते रहे गये और श्रीकृष्ण दरबार से साफ निकल आये। राज सभा से लौटकर श्रीकृष्ण ने हस्तिनापुर से कायर की तरह जाना उचित नहीं समझा। वे वहाँ सीधे अपनी बुआ के पास पहुँचे, उन्हें हर प्रकार से ढाढ़स बंधाया। कुन्ती से बिदा लेकर श्रीकृष्ण जब महल के बाहर निकल रहे थे, तब राज सभा से बहुत से सामन्त और सभासद भी लौट रहे थे। श्रीकृष्ण को देखकर सब लोग अचम्भे में रह गये। उन्हें क़ैद करने की असफलता पर कौरवों ने अपने दांत पीस लिये। पर अब वे उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकते थे, क्योंकि षड्यंत्र की असफलता के बाद महाराज ने सब कर्मचारियों को यह कड़ा आदेश दे दिया था कि श्रीकृष्ण के साथ उनकी राज्य सीमा में कोई छेड़-छाड़ न की जाय। लेकिन श्रीकृष्ण छेड़-छाड़ करने से न चूके। उन्होंने कर्ण को अपने रथ की ओर जाते देखा तो चट से आगे बढ़कर उनका हाथ पकड़ लिया और अपने रथ की ओर उन्हें ले गये। रास्ते में उन्होंने कर्ण से कहा- "भाई क्या आप जानते हैं कि आप मेरे बड़े फुफेरे भाई हैं?" |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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