भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
वे क्षीरनीर-विवेक के समान दृक्-दृश्य अथवा आत्मा-अनात्मा का विवेक कर सकते हैं; किन्तु उनकी दृष्टि में वे दोनों ही तत्त्व सत्य रहते हैं। वेदान्तियों की दृष्टि में दृश्य सत्ता नहीं रहती, इसलिये उन्हें परमहंस कहा जाता है। इस प्रकार जिसकी दृष्टि में सम्पूर्ण दृश्य का बाध होकर केवल शुद्ध चेतन ही अवशिष्ट रह गया है उसे परमहंस कहते हैं। ऐसी स्थिति में भी विचार दृष्टि से तो दृश्य का अत्यन्ताभाव निश्चित हो जाता है किन्तु उसकी प्रतीति तो बनी ही रहती है। कहा है-
इससे सिद्ध होता है कि तत्त्वज्ञ को भी कभी-कभी भगवान की विश्वविमोहिनी माया के अधीन हो जाना पड़ता है। दुर्गा सप्तशती में कहा है-
श्री गोसाईं जी महाराज कहते हैं- “सो ग्यानिहु कर मन अपहरई। बरियाई विमोहबस करई।” अतः सिद्ध हुआ कि प्रारब्ध वश तत्त्वज्ञ का भी पतन हो जाता है। मनु जी ने भी कहा है-‘ज्ञान क्षरति’ अर्थात ज्ञान बह जाता है। इसीलिये ऐसा कहा जाता है कि तत्त्वज्ञ होने पर भी सदा सावधान रहना चाहिये। अतः यहाँ ‘अमलात्मनाम्’ ऐसा पद और दिया है। अर्थात जो मलविक्षेप यानी रजोलेश-तमोलेश से निर्मुक्त हैं, जिन महानुभावों के चित्तों को खींचने वाली कोई भी लौकिक सत्ता नहीं है और जो सदा ही दृश्यातीत शुद्ध चेतन में ही परिनिष्ठत रहते हैं उनका आकर्षण किसी लौकिक पदार्थ से नहीं हो सकता। अतः उन्हें अपनी परमानन्दमयी अहैतुकी भक्ति प्रदान करने के लिये उनके परमाराध्य और एकमात्र ध्येयज्ञेय शुद्ध परब्रह्म ही अपनी लीलाशक्ति से सगुण विग्रह धारण करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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