भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यहाँ यह शंका हो सकती है कि उन्हें भक्ति प्रदान करने की ऐसी आवश्यकता ही क्या है? इसका उत्तर यही है कि भगवान ऐसा करके उन्हें परमहंस से श्रीपरमहंस बनाते हैं। तत्त्वज्ञ लोग यद्यपि सजातीय, विजातीय एवं स्वगतभेद-शून्य शुद्ध परब्रह्म का अनुभव करते हैं परन्तु प्रारब्ध शेष पर्यन्त निरुपाधिक नहीं होते। यद्यपि उन्होंने देहेन्द्रियादि का मिथ्यात्व निश्चय कर लिया है तथापि व्यवहार काल में इनकी सत्ता बनी रहती है। समाधि काल में भी निर्वृत्तिक मनरूप उपाधि रहती ही है। इसी से वाचस्पति मिश्र ने कहा है कि निरुपाधिक ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं होता। संक्षेप शारीरकार भी अविद्या का आश्रय शुद्ध चेतन को ही मानते हैं। उनका कथन है- “आश्रयत्वविषयत्वभागिनी निर्विभागचितिरेव केवला।” अर्थात अज्ञान का आश्रय और विषय अखण्ड शुद्ध चेतन ही है। किन्तु जिस समय शुद्ध चेतन अज्ञान का आश्रय और विषय होता है उस समय वह अज्ञानोपहित तो होना ही चाहिये। अतः इसका तात्पर्य यही है कि अज्ञान अज्ञानातिरिक्त उपाधिशून्य ब्रह्म को ही विषय करता है। जिस प्रकार संसार का आदि मूलाज्ञान है उसी प्रकार उसका अन्त भी चरमावृत्ति है। वस्तुतः मूलाज्ञान और चरमावृत्ति में कोई अन्तर नहीं है। चरमावृत्ति परब्रह्म को विषय करती है-इसका तात्पर्य यही है कि वह चरमावृत्ति से व्यतिरिक्त उपाधिहीन ब्रह्म को विषय करती है, क्योंकि चरमावृत्ति तो वहाँ मौजूद ही है। निरुपाधिक ब्रह्म का अनुभव तो प्रारब्ध क्षय के अनन्तर उपाधि का नाश होने पर ही होता है। किन्तु जिस समय वे ही शुद्ध परब्रह्म अपनी अचिन्त्य लीलाशक्ति से कोटिकामकमनीय महामनोहर श्रीकृष्णमूर्ति में प्रादुर्भूत होंगे उस समय उस तत्त्वज्ञ को भी उनका वह दिव्यदर्शन निर्विशेष ब्रह्मदर्शन की अपेक्षा अधिक आनन्दप्रद प्रतीत होगा। जिस प्रकार सूर्य को दूरवीक्षण यन्त्र द्वारा देखने पर उसमें जो विचित्रता प्रतीत होती है वह केलव नेत्रों से देखने पर प्रतीत नहीं होती। उसी प्रकार लीलाशक्त्युपहित सगुण ब्रह्मदर्शन में जो आनन्दानुभव होता है वह अशेष-विशेष शून्य शुद्ध परब्रह्म के साक्षात्कार में भी नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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