भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अब हम इस हेतु की महत्ता का विचार करते हैं। यहाँ भगवान के अवतार का प्रयोजन अमलात्मा मुनियों के लिये भक्तियोग का विधान करना बतलाया गया है। जैसे कर्म का स्वरूप द्रव्य और देवता हैं, उसी प्रकार भक्ति का स्वरूप भजनीय है। भजनीय के बिना भक्ति नहीं हो सकती। प्रेमलक्षणा भक्ति का आलम्बन कोई अत्यन्त चित्ताकर्षक और परम अभिलषित तत्त्व ही हो सकता है। जो महामुनीश्वर प्रकृति-प्राकृत प्रपंचातीत परततत्त्व में परिनिष्ठित हैं उनके मन का आकर्षक भगवान के सिवा प्राकृत पदार्थों में तो कोई नहीं हो सकता। अतः इस बात की आवश्यकता होती है कि उनके परमाराध्य भगवान ही अचिन्त्य एवं अनन्त सौन्दर्य-माधुर्यमयी मंगलमूर्ति में अवतीर्ण होकर उन्हें भजनीय रूप से अपना स्वरूप समर्पण कर भक्तियोग का सम्पादन करें, क्योंकि जो कार्य पूर्ण परब्रह्म परमात्मा के अवतीर्ण हुए बिना सम्पन्न न हो सकता हो, जिसके सम्पादन में उनकी सर्वशक्तिमत्ता और सर्वज्ञता कुण्ठित हो जाय उसी के लिये उनका अवतीर्ण होना सार्थक हो सकता है। वस्तुतः उन महात्माओं के लिये भजनीय स्वरूप समर्पण करने में भगवान की सर्वज्ञता एवं सर्वशक्तिमत्ता कुण्ठित हो जाती है, क्योंकि ये शक्तियाँ शुद्ध परब्रह्म से व्यतिरिक्त नहीं है, ये उन्हीं के अन्तर्गत हैं। अतः जो लोग शुद्ध परब्रह्म में ही निष्ठा रखने वाले हैं, उन पर इनका प्रभाव नहीं पड़ सकता। यदि हम वेदान्त-सिद्धान्त के अनुसार स्पष्टतया कहें तो यों समझना चाहिये कि यह सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ता प्रकृति और प्राकृत अंश को लेकर ही है। ये माया विशिष्ट ब्रह्म के गुण हैं। इसी से तत्त्वज्ञ पर इनका प्रभाव नहीं होता, क्योंकि वह गुणातीत होता है, इसलिये गुण उसे अपनी स्थिति से विचलित नहीं कर सकते। ‘गुणैर्यो न विचाल्यते।’ किन्तु फिर भी कहा जा सकता है कि तत्त्वज्ञ का प्रारब्ध तो शेष रह ही जाता है। इसी से प्रारब्धभोग के निर्वाहक पदार्थ उसके भी मन और इन्द्रियादि को अपनी ओर खींच लेते हैं। जिस प्रकार प्रारब्धभोग के लिये उसकी विषयों में प्रवृत्ति होती है उसी तरह विलक्षण कोई रूपमाधुरी उसे अपनी ओर खींच ले सकती है। तत्त्वज्ञ को भी क्षुधातुर होने पर अन्नभक्षण में प्रवृत्त होना ही पड़ता है तथा तृषित होने पर उसे जल की इच्छा भी होती ही है, क्योंकि ‘पश्वादिभिश्चाविशेषात’ इस भाष्य के अनुसार भोजनाच्छादनादि में तो पशु आदि से उनकी समानता ही है। फिर भगवान के अवतरण की क्या आवश्यकता है और उनकी सर्वशक्तिमत्तादि क्यों कुण्ठित होगी? इसका निराकरण करने के लिये उपर्युक्त श्लोक में ‘अमलात्मना परमहंसानां मुनीनाम’ ऐसा कहा गया है। जिस प्रकार हंस परस्पर मिले हुए दूध और पानी को अलग-अलग कर देता है उसी तरह जो आत्मा-अनात्मा, दृक्-दृश्य अथवा पुरुष-प्रकृति का विवेक कर सकता है, वह हंस कहलाता है। यह योग्यता सांख्यवादियों में भी देखी जाती है। इसलिये वे भी ‘हंस’ कहे जा सकते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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