भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
श्रीभगवान की भी उक्ति है- “क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्व क्षेत्रेषु भारत।” बाह्याभ्यन्तर कार्यकारण सब कुछ अज अव्यक्त ब्रह्म ही है। '“अजायमानो बहुधा व्यजायत”, “एकोहं बहुस्याम” “इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते” अर्थात अजायमान और एक ही परमतत्त्व माया से बहुरूप में जायमान सा प्रतीत होता है। जो इस आयमान अखण्डैकरस, अद्वितीय वस्तु में वस्तुतः जायमानता और नानात्व देखते है, जो ब्रह्म भगवान की निर्विकारकूटस्थता और अखण्डैकरसता का व्यापादन या उसे कलंकित करना चाहत है, वह प्राणी उसी अपराध से पुनः पुनः मृत्यु को प्राप्त होता है। अतः इसे परमार्थतः एक रूप से ही देखना चाहिये। “मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति” अर्थात जो भगवान में थोड़ा भी भेद की कल्पना करता है, उसे भय होता है। “उदरमन्तरं कुरुते अथ तस्य भयं भवति द्वितीयाद्वैभयं भवति।” इतना ही नहीं, संसार में ब्रह्म और धर्म, लोक एवं वेद, किंबहुना जिस किसी भी पदार्थ को प्रभु से भिन्न या पृथक देखा जाता है, वह पदार्थ ही अपना घोर अपमान समझकर भिन्नदर्शी को परमार्थ से प्रच्युत कर देता है। “सर्व तम् परादाद्योऽन्यत्रात्मनः सर्व वेद” प्रियतम का विप्रयोग किसी के लिये भी सह्य नहीं है। प्रेम की पराकाष्ठा यही है कि प्रियतम से वियुक्त होकर प्रेमी क्षणभर भी अपना जीवन न रख सके। श्रीव्रजांगनओं का अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के वियोग में एक क्षण भी अनन्तकोटि कल्प के समान प्रतीत होता था। परमार्थ दृष्टि से तो प्रियतम का वियोग होते ही प्रेमी का स्वरूप ही नहीं रह सकता। क्या बिम्ब से वियुक्त होकर प्रतिबिम्ब का और महाकाश से वियुक्त होकर घटाकाश का एवं महासमुद्र से वियुक्त होकर तरंग का स्वरूप रह सकता है? इनमें तो कहने के लिये ही भेद हैं, वस्तुतः भेद नहीं हैं। इसीलिये श्रीगोस्वामीजी ने श्रीराम और जनकनन्दिनी में वारि और बीचि का दृष्टान्त रखकर अभेद सिद्ध किया है- “गिरा अर्थ जलबीचि समः कहियत भिन्न न भिन्न।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज