भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
फिर कोई भी तत्त्व भगवान की सत्ता और स्फूर्ति से वियुक्त होकर अपना स्वरूप कैसे रखे, क्योंकि सत्ता स्फूर्ति सम्बन्धशून्य होने पर सभी तत्त्व निःसत्त्व और निःस्फूर्ति हो जाते हैं। स्फूर्ति और सत्ता रहित पदार्थ का स्वरूप ही क्या हो सकता है, अतः जिन पदार्थों को परमार्थ सद्रूप, स्वयंप्रकाश, स्फूर्तिरूप भगवान से भिन्न समझा जाता है, उन्हें मानों उनके प्रियतम से वियुक्त किया जाता है। उन्हें सत्तास्फूर्तिविहीन तथा निःसत्त्व, निःस्फूर्ति बनाकर अपमानित किया जाता है। अतः वे पदार्थ भिन्नदर्शी को स्वार्थ से प्रच्युत कर देते हैं। इन्हीं श्रुतिस्मृति-सिद्ध पारमार्थिक अभेद और काल्पनिक व्यवहार में आने वाले व्यावहारिक भेद को सिद्ध करने के लिये वेदान्तों में बिम्ब-प्रतिबिम्ब, घटाकाश-महाकाश, समुद्र-तरंग आदि अनेक दृष्टान्त जीव और भगवान के स्वरूप में रखे गये है। दृष्टान्त एकदेशी हुआ करते हैं। उनका सर्वांश दृष्टान्त में नहीं संगत हुआ करता। इसी वास्ते जैसे घट के गमन में, जिस आकाश के साथ घट-सम्बन्ध विच्छिन्न हुआ वह महाकाश हुआ और जो महाकाश था वही घट के संसर्ग घटाकाश हो गया। इसी तरह अन्तःकरण के गमन में पूर्वदेशस्य अन्तःकरणादच्छिन्न चैतन्यमुक्त हो गया एवं अपूर्व चेतन बद्ध हो गया एवं नीरूप निरवयव पदार्थ न प्रतिबिम्बित होता है और न प्रतिबिम्ब का आधार होता है। फिर आत्मा और अन्तःकरण ये दोनों ही नीरूप एवं निरवयव हैं। इनका प्रतिबिम्ब या प्रबिम्बिाधारता कैस होगी इत्यादि शंकाएँ निर्मूल हैं, कारण कि अलौकिक अर्थ में लौकिक पदार्थ पूर्णरूप से दृष्टान्त नहीं हुआ करते। केवल विवक्षित अंश में दृष्टान्त-दार्ष्ट्रान्त की समता होती है। यहाँ केवल उपाधि द्वारा उपहित में काल्पनिक भेद तथा उपाधिगत दूषण या भूषण का भान होना और परमार्थतः अभेद तथा सर्वोपाघिदोषादि विवर्जित होना इतना ही अंश त्रिवक्षित हैं। जैसे घटाकाश का महाकाश से भेद और उसमें गमनागमनादि नाना प्रकार की कार्य करण क्षमता यह सब घटाोपाधिकृत हैं, जैसे महासमुद्र से तरंग का भेद और उसका चांचल्यादि वायुरूप उपाधि से जन्य है, जैसे प्रतिबिम्ब में विम्ब् का भेद एवं मलिनता, चंचलता आदि जलदर्पणादि उपाधिजन्य है, उसी तरह जीव में निर्विकार, परमचैतन्यतानन्द, रसात्मक भगवान से भिन्नता कर्तृत्व-भोक्तृत्व, सुखित्व-दुःखित्वादि नाना अनर्थों का योग एवं अविद्या अन्तःकरण रूप उपाधिकृत है। उपाधि के विलयन में एक परमानन्द भगवान ही अवशेष रहता है। इस प्रकार से तत्त्व की अद्वितीयता, अनन्तता और लोकसिद्ध व्यवहार की उपपत्ति दिखलाने के लिये अनेक प्रकार के दृष्टान्तों का उपपादन है। जिसकी बुद्धि में जिस दृष्टान्त से पारमार्थिक अभेद और भेद व्यवहार बुध्यारूढ़ हो उसके लिये वही दृष्टान्त प्राधान्येन उपादेय है, क्योंकि शास्त्रों का किसी दृष्टान्त में तात्पर्य नहीं है। तात्पर्य तो केवल व्यावहारिक भेदोपपादनपूर्वक पारमार्थिका द्वैतबोधन में ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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