भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेदान्त-रससार
इसी सिद्धान्त को श्रीगोस्वामी जी ने भी रामचरितमानस में पुष्ट किया है-
अतः सिद्ध हुआ कि परमानन्दघन भगवान से भिन्न होकर परमार्थ सत्य कोई भी पदार्थ नहीं है। जैसे वायु आदि क्रम से आकाश के द्वारा ही समुद्भूत घटरूप उपाधि से आकाश में महाकाश और घटाकाश ये दो भेद हो जाते हैं, वैसे ही परमात्मा से समुद्भूत उपाधियों के द्वारा चैतन्यानन्दघन भगवान में ही जीव और परमेश्वर ये दो भेद हो जाते हैं। वस्तुतः घट, आकाश का कार्य होने से उससे पृथक नहीं है। अत: विद्वान, जैसे कार्य को विज्ञान-दृष्टि से कारण में प्रलीन करके, घटरूप उपाधि को आकाश में बाधित कर घटाकाश और महाकाश के भेद को बाधित कर देते हैं, वैसे ही अधिष्ठानरूप, शुद्ध सत्य के बोध से, सद्सद्विलक्षण अनिर्वचनीय शक्ति, एवं तत् कार्यरूप उपाधियों को सद्रूप ब्रह्म में ही बाधित करके, जीव और परमेश्वर के भेद का भी निराकरण कर देते हैं। अर्थात जैसे घट को पृथ्वी में, पृथ्वी को जल में, जल को तेज में, तेज को वायु में एवं वायु को आकाश में लय करने पर महाकाश से भिन्न न घटरूप उपाधि रहती है और न घटोपहित घटाकाश ही रहता है, वैसे ही आकाश को अहंतत्त्व में, अहंतत्त्व को महत्तत्त्व में और उसको अव्यक्त में, अव्यक्त को सतत्त्व में विलीन कर देने पर देह, इनिद्रय, मन, बुद्धि, अज्ञानरूप उपाधि तथा इन उपाधियों से उपहित जीव, ये सभी अखण्डानन्द-रस भगवान ही हो जाते हैं। भगवान से भिन्न उनको कोई भी स्वरूप नहीं रहता। इसी वास्ते भगवती श्रुति ने कहा है- “सर्व खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत”, “ऐतदात्म्यमिदं सर्व स आत्मातत्त्वमसि”, “अयमात्मा ब्रह्म”, “अहं ब्रह्मास्मि” अर्थात यह सब कुछ ब्रह्म ही है, क्योंकि तज्ज, तदन है। ब्रह्म से ही समस्त प्रपंच की उत्पत्ति, स्थिति एवं विलयन होता है। यह सर्व दृश्य प्रपंच इस आत्मा का स्वरूप ही है, ब्रह्म ही समस्त प्रपंच की आत्मा है और ब्रह्म ही तुम हो। यह आत्मा ब्रह्म है। “अहं” पद लक्ष्यार्थ प्रत्यगात्मा ब्रह्म ही हैं। किंबहुना “सवाह्वाभ्यन्तरो ह्यजः”, “वहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च” अर्थात चराचर सकल प्रपंच के भीतर-बाहर ब्रह्य ही है और जिस चराचर प्रपंच के भीतर-बाहर ब्रह्म है, वह चराचर प्रपंच भी ब्रह्म ही है। सर्वदृश्यरूप क्षेत्र और द्रष्टारूप क्षेत्रज्ञ ये सभी भगवान ही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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