भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
“इमाः क्षपाः” इस पद प्रयोग से मालूम पड़ता है कि वे रात्रियाँ प्रत्यक्ष हैं। भगवान अंगुल्या निर्देश करते हुए कहते हैं कि इन रात्रियों में आप लोग मेरे संग रमण करना। यद्यपि भविष्य की रात्रियों का प्रत्यक्ष होना असम्भव है, तथापि मालूम होता है कि जैसे राजा की दानरुचि समझकर राजा का अमात्य देय वस्तु को उसी क्षण उपस्थापित कर देता है, उसी तरह श्रीकृष्ण की दानरुचि जानकर ही योगमाया ने उन रात्रियों की अभिमानिनी शक्तियों को उपस्थित कर दिया। उन्हीं की ओर अंगुल्यानिर्देश करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं कि आप लोग इन रात्रियों में रमण करना। अनन्त, अखण्ड और ब्राह्मरस का संभोग परच्छिन्न रात्रियों में नहीं हो सकता। अतः एक ही प्रहर-चतुष्टयवती रात्रि में अनन्त कोटि दिव्य ब्राह्मी रात्रियों का निवेश करके यह रासलीला श्रीकृष्ण-रमण-सम्पन्न होती है। वे विलक्षण व्रजांगनाओं की श्रीकृष्ण-रसदात्री रात्रि परम रसमयी है। रासपंचाध्यायी के प्रारम्भ में ही इनका स्मरण किया गया है-
श्रीकृष्ण, उनकी लीलाएँ, लीलाओं का काल और धाम सब भगवत्स्वरूप ही होते हैं। इसीलिये- “इमाः, ताः” आदि पदों से उनको विलक्षणता, तत्पदार्थता आदि जानी जाती है। बस, इस तरह श्रीकृष्ण से वर पाकर भगवान की आज्ञानुसार व्रजांगनाएँ भगवान के चरणाम्भोज का चिन्तन करती हुई बड़ी कृचछ्रता (कष्ट) के साथ व्रज गयीं। “तास्तथावनता दृष्ट्वा भगवान् देवकीसुतः। वासांसि ताभ्यः प्रायच्छत् करुणस्तेन तोषितः।। दृढं प्रलब्धास्त्रपया च हापिता प्रस्तोभिताः क्रीडनवच्च कारिताः। वस्त्राणि चैवापहृतान्यथाप्यमुं ता नाभ्यसूयन् प्रियसंगनिर्वृताः।। परिधाय स्ववासांसि प्रेष्ठसंगमसज्जिताः।। गृहीतचित्ता नो चेलुस्तस्मिँल्लज्जायितेक्षणाः। तासां विज्ञाय भगवान स्वपादस्पर्शकाम्यया। धृतव्रतानां संकल्पमाह दामोदरोऽबलाः। संकल्पो विदितः साध्व्यो भवतीनां मदर्चनम्।। मयानुमोदितः सोऽसौ सत्यो भवितुमर्हति।। न मय्यावेशितधियां कामः कामाय कल्पते।। भर्ज्जिता क्वथिता धानाः प्रायो बीजाय नेष्यते। याताबला व्रजंसिद्धा मयेमा रंस्यथक्षपाः।। यदुद्दिश्यव्रतमिदंचेरुरार्याचंनं सतीः।” श्रीशुक उवाचः- “इत्यादिष्टा भगवता लब्धकामाः कुमारिकाः।। ध्यायन्त्यस्तत्पदाम्भोजं कृच्छ्रान्निर्विविशुर्व्रजम्।” |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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