भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
दुःसहप्रेष्ठविरहजन्य तीव्र ताप को देखकर समस्त अशुभ कर्म कम्पित हो गये और अच्युत के ध्यानप्राप्त आश्लेषजन्य आनन्द को देखकर समस्त पुण्य भी संकुचित होकर दुर्बल हो गये। अर्थात उन्होंने यह सोचा था कि समस्त पाप मिलकर भी किसी को इतना कष्ट नहीं पहुँचा सकते, जितना इन व्रजांगनाओं को श्रीकृष्ण वियोग के एक क्षण में ताप हुआ है और सभी पुण्य मिलकर कोटि कल्पों में भी इतना आनन्द नहीं दे सकते जितना उन्हें श्रीकृष्ण के ध्यान प्राप्त परिरम्भण के एक क्षण में हो सकता है। बस, तीव्र ताप से गुणमय त्रिविध शरीर या पंचकोश को जलाकर वह ध्यानप्राप्त आश्लेषरस दिव्य स्वरूप सम्पन्न होकर श्रीकृष्ण को प्राप्त हुईं। इसीलिये निर्गुणा भागवती भक्ति को सिद्धि से भी श्रेष्ठ और सर्वकोशदाहिका कहा गया है।
अनिमित्ता भागवती भक्ति सिद्धि से भी श्रेष्ठ होती है। जैसे भुक्त अन्न को जठराग्नि पचा डालती है, उसी तरह वह पंचकोशों को जला डालती है। “अतप्ततनुर्नतदासोऽश्नुते दिवम्।” इसी वियोगजन्य तीव्र ताप से जिसके स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों तनु (देह) नहीं तप्त हुए, वह अमृतमय कृष्णरस का अनुभव नहीं पा सकता। अतः उत्कण्ठा और तापवृद्धि के लिये तो यह एक वर्ष की अवधि दी गयी है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण कामुक नहीं थे, कोई भी कामुक दुर्लभ परम सुन्दरी नग्न कामिनियों को स्वाधीन पाकर क्षणभर भी धैर्य नहीं धारण कर सकता, फिर एक वर्ष की अवधि वह कब रख सकता है? यह तो योगेश्वर श्रीकृष्ण का ही काम है कि जलक्रीड़ापरायण नग्न व्रजसुन्दरियों को स्वाधीन एवं परमानुरागिणी, प्रेष्ठासंगमसज्जिता बनाकर, स्वयं परम निर्विकार ही रहकर, स्पर्श के लिये एक वर्ष की अवधि नियत करते हैं। इससे केवल ब्राह्मसंस्पर्श की अभिलाषिणी व्रजकुमारिकाओं की कामनापूर्ति मात्र भगवान ने की है- “ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।” उनकी योग्यता के परिपाकार्थ ही “मयेमारंस्यथ क्षपाः” वरदान है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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