भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
अति सुलभ पदार्थ में भी उत्कण्ठा नहीं होती और अति दुर्लभ में भी असंभव बुद्धि से प्रीति की कमी होती है। जिन्हें साम्राज्य आदि का मिलना असम्भव प्रतीत होता है उनकी उधर उत्कण्ठा या प्रयत्न कुछ नहीं होता। एक दीन-हीन भिक्षुकी को सम्राट का संमिलन असम्भव है, अतः उसे उसकी उत्कण्ठा भी नहीं होती। जीव भी अपने को कर्ता, भोक्ता, सुखी, दुखी और महापापी समझकर और भगवान को अनन्त ब्रह्माण्डनायक समझकर उनसे अपना मिलना असम्भव समझे तो न उसे संमिलन की उत्कण्ठा होती है और उत्कट प्रयत्न ही करता है। इसीलिये भगवत्संमिलन से वंचित रहता है। भगवत्संमिलन की उत्कट उत्कण्ठा ही भक्ति है। भक्ति हुई कि भगवान का संमिलन हुआ। इसीलिये भगवती श्रुति भगवान की चिदानन्द रसमयी जीव शक्तियों को भगवत्संमिलन की सुलभता दिखलाती है- “द्वासुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।” तुम दोनों सुपर्ण हो, तुम दोनों का स्वाभाविक सख्य है, तुम दोनों सदा सम्बन्धित और एक ही स्थान में रहते हो। तुम भगवान के हो, भगवान तुम्हारे हैं। भगवान तुम्हारें संमिलन की प्रतीक्षा में हैं। तुम श्रद्धा-भक्ति से एक बार भगवान के मंगलमय नाम का उच्चारण करो। समस्त पात-ताप से मुक्त होकर भगवत्प्राप्ति के योग्य हो जाओगे। इस तरह चिदानन्दमयी जीव-शक्तियों को प्रभुमिलन की सम्भावना, उत्कण्ठा, उत्सुकता होती है। जब कभी सुलभ समझकर असावधानी होने लगती है तब ‘दूरात्सुदूरे’ कहकर उसकी दुर्लभता भी बतायी जाती है। जप, तप और देवाराधनादि द्वारा जीव शक्ति को शुद्ध जिज्ञासा तथा प्रेप्सा होती है। श्रीव्रजांगनाओं को भी कात्यायिनी समर्चन द्वारा वर प्राप्त करके भगवत्संमिलन की संभावना और उत्कट उत्कण्ठा हुई, परन्तु फिर भी अभी उत्सुकता और उत्कण्ठा की अपेक्षा है। इसीलिये भगवान अभी कुछ अवधि का निर्देश कर रहे हैं। परम बुभुक्षु के सन्मुख जिस समय मधुर मनोहर पक्वान्न उपस्थित हो और उसके संमिलन की सम्भावना हो गयी हो, तो फिर उत्सुकता का ठिकाना नहीं रहता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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