भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
व्रजांगनाओं को, श्रीकृष्णांगसंस्पृष्ट-वस्त्र द्वारा श्रीकृष्णांग-संस्पर्श का रसास्वाद होने से अधिकाधिक आकर्षण हुआ। किसी भी रस का जब तक अनुभव न हो, तब तक उधर आकर्षण नहीं होता। यही स्थिति ब्रह्मरस की है। श्रीनारद जी को भी जब एक क्षण के भगवत्स्वरूप के माधुर्य का अनुभव हुआ, तब उन्हें एक विचित्र लालसा और चटपटी हुई।
फिर अनेकशः प्रार्थना करने पर भी भगवान ने यही कहा कि- “सकृद्यद्दर्शितं रूपमेतत्कामायतेऽनघ।” एक बार तुम्हें स्वरूप-माधुर्य का अनुभव कराया। यह केवल उत्कट कामना के लिये। उत्कट कामना से ही प्राणी समस्त पाप-तापों को नष्ट कर देता है। इसीलिये भावुकों ने कहा है-
मुकुन्दसेवी औरों के समान कभी संसृति में नहीं पड़ता, किन्तु वह मुकुन्द के श्रीचरण का उपगूहन (आलिंगन) करता हुआ, उसके सुस्पर्श सौगन्ध्यामृत रस का आस्वादन करता हुआ उसे कभी छोड़ना नहीं चाहता। अस्तु, श्रीव्रजांगनाओं को श्रीकृष्ण के श्रीअंग एवं अमृतमय मुखचन्द्रिका का दर्शन हुआ। उनके वचनामृत, हास-परिहास का आस्वादन हुआ, एवं वस्त्र द्वारा परम्परया श्रीकृष्णांग का संस्पर्श भी हुआ, अतः सर्वात्मना श्रीकृष्ण की ओर उनका आकर्षण हुआ और वरप्राप्ति से श्रीकृष्ण का पूर्ण संस्पर्श हो सकेगा, यह भी संभव हो गया। अब उनकी उत्सुकता और उत्कण्ठा उन्हें क्षण-क्षण को युग के या कल्प के समान प्रतीत कराने लगी। अब एक-एक क्षण का विलम्ब उनके लिये असह्य हो गया। एक-एक क्षण के वियोगजन्य तीव्र ताप से उनके अविद्या, काम, कर्म, हृदयग्रन्थि, किंबहुना गुणमय पाँचों कोश जलने लगे और क्षणिक संमिलनकल्पनाजन्य लोकोत्तर सुख से, रसमय स्वरूप परिपुष्ट होने लगा। जब यह कार्य पूर्ण हो जायगा, तब रास के लिेय वेणुगीत पीयूष से उनका आकर्षण करके, उनके साथ विलासादि रमण होगा। कुछ ऐसी भी व्रजांगनाएँ थीं कि जिनके प्राकृत पंचकोशों और रसात्मक स्वरूप का दाह तब तक भी नहीं हुआ था। जब कृष्ण का वेणुनाद सुनकर वे श्रीमद्वृन्दारण्य धाम की ओर चली तब उनके पिता, भ्राता और पति आदि ने उन्हें रोककर उन्हें गृह में बन्द कर दिया। जब वह किसी तरह निकल न सकीं, तो वहाँ ही नेत्र मींचकर श्रीकृष्ण का ध्यान करने लगीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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