भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
चीरहरण
लोक में भी प्रिय संस्पृष्ट पुष्पमाला, वस्त्र आदि को प्रेमी बड़े अनुराग से हृदय एवं नयनों में लगाते हैं। श्रीकृष्ण संस्पृष्ट वस्त्र को धारण कर व्रजांगना रसाक्रान्त हो उठीं। श्रीकृष्ण बल पाकर लज्जा नेत्रों द्वारा पुनः उनमें प्रविष्ट हुई। श्रीकृष्ण ने वस्त्र और अपने आपको तो दे दिया, परन्तु उनके मन को चुरा लिया। अतः प्रेष्ठ-संगम के लिये लालायित होकर वे व्रज न जा सकीं। परमानन्द रसात्मक श्रीकृष्ण के सम्मिलन संस्पर्श संभोग तादात्म्यापत्ति के लिये जो न लालायित हो, उसका जीवन सचमुच व्यर्थ है। अस्तु, श्रीकृष्ण ने उन व्रजकुमारिकाओं को संकल्प को जान लिया कि इन्होंने मेरे ही पादस्पर्श की कामना से यह व्रत धारण किया है, फिर तो श्रीकृष्ण भक्त-परतन्त्र होकर गोपी की प्रेम रज्जु से बँधकर दामोदर हो गये। प्रेमपाशगृहीत होकर बोले, साध्वियो! आप लोगों के संकल्प को मैंने जान लिया और मैंने उसका अनुमोदन किया, वह सफल होने योग्य है। मुझमें जिनके मन और बुद्धि निविष्ट हैं, उनकी कामनाएँ कामना न होकर कवेल रसरूप ही होती हैं। जैसे भर्जित एवं क्वथित धान से अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती, वैसे ही मद्विषयक काम संसार का हेतु नहीं बनता। हाँ! जैसे भर्जित वा क्वथित बीज विशिष्ट-स्वादयुक्त होने से आस्वादनीय होता है, वैसे ही मद्विषयक काम रसात्मक होने से रसिकों को आस्वादनीय होता है। अस्तु, अब आप लोग व्रज जायँ। जिस उद्देश्य से आप लोगों ने आर्या की अर्चना की है, वह इन रात्रियों में सफल होगी। “मयेमारंस्यथ क्षपाः।” यद्यपि कहा जाता है कि उसी क्षण श्रीव्रजांगनाओं का मनोरथ पूर्ण करना चाहिये था, परन्तु गंभीरता से विचार करें तो विदित होगा कि पूर्व कथनानुसार आत्मरति भगवान का रमण आत्मा में ही होता है। अतः व्रजांगनाओं में जब तक पूर्ण रसात्मकता न होगी तब तक उनमें रमण असंभव है। जब से प्राणी भगवान का अर्चन-स्मरण आरम्भ करता है, तभी से प्राणी का प्राकृतभाव नष्ट होने लगता है और भगवत्स्वरूपभूत अप्राकृत रसात्मकता आ जाती है। व्रजकुमारिकाएँ युगों से श्रीकृष्ण प्राप्ति के लिये तप, जप, ध्यान कर रही थीं। बहुत अंशों में उनका प्राकृतत्त्व नष्ट हो चुका था, अप्राकृत रसरूपता भी उनमें बहुत अंशों में आ गयी थी। तथापि अभी वह सब अपूर्ण ही था। भगवत्संमिलन की उत्कट उत्कण्ठा और ध्यानमय संमिलन, परिरम्भणादिजन्य रस के आस्वादन से रसमय देहेन्द्रिय, मन और बुद्धि की पुष्टि होती है। वियोगजन्य दुःख के तीव्र ताप से देहेन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि का दाह होता है, परन्तु उत्कण्ठा और वियोग भी उस वस्तु में नहीं होता, जिसका मिलना ही असम्भव है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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