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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीकृष्णजन्म और बालक्रीड़ा
ऐसे तेजोमयी कांची आदि से अत्यन्त शोभायुक्त बालक को विसमय से प्रफुल्ल नेत्रों द्वारा देखकर श्रीवसुदेव जी ने परब्रह्म परमात्मा को ही अपने पुत्ररूप में समझा और उसके जन्मोत्सव में मन से ही ब्राह्मणों के लिये दश सहस्र गौओं का संकल्प कर डाला। फिर उस बालक को अपने दिव्य ब्राह्म-तेज से सूतिका-भवन को प्रभासित करते हुए, अपने श्रीअंग की सुभगता, श्यामलता और मधुर दिव्य दीप्ति से नीलमणि तथा नीलेन्दीवरकोश की सहज सुभगता और श्यामलता तथा अपरिगणित सूर्य-चन्द्र के सुमधुर दिव्य प्रकाश को लजाने वाले साक्षात् परम पुरुष परमात्मा जानकर वे विनम्र और कृतान्जलि तथा प्रभावित होने के कारण निर्भय होकर स्तुति करने लगे- हे नाथ! मैंने आपकी मंगलमयी कृपा से ही आपको जाना। आप प्रकृतिपार सर्वबुद्धि-साक्षी निर्मल-बोध तथा आनन्दस्वरूप साक्षात् परम पुरुष हैं। आप ही पहले अपने प्रकृति से त्रिगुणात्मक प्रपंच का निर्माण कर पश्चात उसमें अप्रविष्ट होकर भी (क्योंकि सर्वप्रकाशक सर्वाधिष्ठान व्यापक असंग तत्त्व का प्रवेश नहीं बन सकता) प्रविष्ट के समान प्रतीत होते हैं। जैसे महदादि अविकृत भाव विकृत भूतों के साथ मिलकर विराट का निर्माण करते हैं और उनमें अनुगत से प्रतीत होते हुए भी वास्तव में अप्रविष्ट ही हैं, हे नाथ! वैसे ही आप सर्वप्रकाशक सर्वाधिष्ठान सर्वकारण हैं। आपका विवर्त्तभूत जगत् आप में ही है, और आप स्वरूप से असंग होते हुए भी तत्तत्प्रपंचों की सत्ता और स्फूर्तिरूप से उनमें प्रविष्ट-से प्रतीत होते हैं। यहाँ तात्पर्य यह है कि कार्य से प्रथम ही कारण सिद्ध होता है। किंबहुना कारण का ही कार्यरूप में प्रादुर्भाव होता है। कारण से भिन्न कार्य कुछ होता ही नहीं, फिर कार्य में कारण का प्रवेश या परस्पर आधाराधेय भाव कैसे हो सकता है, पर तब भी कुण्डल में सुवर्ण, पट में तन्तु, ऐसा व्यवहार होता है। इसलिये अनिर्वचनीय कार्य और कार्य में कारण का अनिर्वचनीय प्रवेश प्रतीत होता ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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