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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीकृष्णजन्म और बालक्रीड़ा
हे नाथ! आप रूपज्ञानादि साधनों से अनुमित इन्द्रियों तथा तद्ग्राह्य रूपादि विषयों के साथ सत्तास्फूर्ति रूप से विराजमान रहते हुए भी इन्द्रियादि से अग्राह्य ही रहते हैं। जैसे चक्षु से रूप-ग्रहण काल में रूप के साथ विद्यमान भी रस नहीं गृहीत होता, क्योंकि इसके ग्रहण में चक्षु की शक्ति नहीं है, वैसे ही विषय तथा इन्द्रियादि में विद्यमान रहते हुए भी आप इन्द्रियादि से उपलब्ध नहीं होते; क्योंकि इन्द्रियों में सर्वाधिष्ठानभूत आपका प्रकाश करने का सामर्थ्य नहीं है। परिच्छिन्न पक्षी आदि का नीड़ में प्रवेश होता है, आप अपरिच्छिन्न हैं, अतः आपका बाह्यआभ्यन्तर भाव ही नहीं बन सकता। आप सर्वस्वरूप तथा सर्वात्मा एवं परमार्थ वस्तु हैं, आपका प्रवेश कैसे और कहाँ हो सकता है? यदि कोई कहे कि दृश्य-प्रपंच में आपका प्रवेश हो सकता है सो ठीक नहीं, क्योंकि निर्विकार सच्चिदानन्द भगवान से भिन्न दृश्य-प्रपंच में जो सत्यत्व बुद्धि करता है, वह अविवेकी है। (हेयादि दृश्य-अनुवाद वाचारम्भण को छोड़कर किसी तरह से भी विचार-सह नहीं है, किन्तु तत्त्वकोटि से अत्यन्त बहिर्भूत अविचारित रमणीय ही है) हे नाथ! यद्यपि आप निरीह, निर्गुण तथा निर्विकार हैं, तथापि तत्त्वज्ञगण सकल प्रपंच की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय आपसे ही कहते हैं। आपके मायायुक्त और मायातीत रूप में ये दोनों बातें विरुद्ध नहीं हैं। अर्थात आपके मायायुक्त-रूप से अनन्त ब्रह्माण्ड से सृष्ट्यादि होते हैं, और मायातीत-रूप से आप निरीह निर्गुण भी हैं। वस्तुतः आपके आश्रित रहने वाली माया के समस्त विलास आपमें औपचारिक दृष्टि से व्यपदिष्ट होते हैं। त्रिलोकी-पालन के लिये आप ही सत्त्व का अवलम्बन करके शुक्ल रूप को धारण करते हैं और उत्पादन तथा संहार के लिये रक्त और कृष्ण रूप धारण करते हैं। हे विभो! आप इस लोक की रक्षा के लिये ही मेरे गृह में अवतीर्ण हुए हैं, और आप असुर-यूथपों की सुसज्जित बड़ी से बड़ी सेनाओं का वध करके भू-भार का अपनयन करेंगे। परन्तु आपके अग्रजों का वध करने वाला यह कंस तो अभी ही आपका जन्म-श्रवण करते ही शस्त्र लेकर आयेगा।“ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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