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इसीलिये कहा गया है-
- विसृजति हृदयं न यस्य साक्षाद्धरिरवशाभिहितोऽप्यघौघनाशः।
- प्रणयरशनया धृताङ्घ्रिपद्मः स भवति भागवतप्रधान उक्तः।।”
यहाँ ‘प्रणय’ शब्द से द्रवावस्था ही विवक्षित है। ऐसे अन्तःकरण से चाहने पर भी भगवान नहीं निकल सकते। इसी को लक्ष्य करके भक्त कहता है कि यदि हृदय से निकल जाओ तो आपका पुरुषार्थं जानूँ- “हृदयाद्यदि चेद्यासि पौरुषं गणयामि ते।” व्रजसीमन्तिनीजन अपने हृदय से भगवान को निकालना चाहती हैं, पर सफल नहीं होतीं। निश्चित करती हैं कि अब उनसे सख्य नहीं करेंगी, फिर भी उनकी चर्चा को दुस्त्यज समझती हैं। किसी सखी ने भगवान् की चर्चा छोड़ दी, तो दूसरी सखी ने तत्काल रोककर कहा-
- “सन्त्यज्ञ सखि तदृदन्तं यदि सुखलवमपि समीहसे सख्याः।
- स्मारय किमपि तदितरद्विस्मारय हन्त मोहनं मनसः।।”
अर्थात यदि इसे क्षणमात्र भी सुखी देखना चाहती हो, तो मोहन की चर्चा न कर कोई और कथा सुनाओ। यह देखकर किसी मुनि को बड़ा आश्चर्य हुआ और वे सोचने लगे कि योगीन्द्र, मुनीन्द्र धारणा, ध्यान आदि के द्वारा विषयों से मन को हटाकर भगवान में लगाना चाहते हैं और मन हट-हटकर विषयों में चला जाता है। किन्तु यह मुग्धा मन को भगवान से हटाकर विषयों में लगाना चाहती है। जिन भगवान की क्षणमात्र स्फर्ति के लिये योगी सदा उत्कण्ठित रहा करते हैं-
- “प्रत्याहृत्य मुनिः क्षणं विषयतो यस्मिन् मनोधित्सति,
- बालासौ विषयेषु धित्सति मनः प्रत्याहरन्ती ततः।
- यस्य स्फूर्तिलवाय हन्त हृदये योगी समुत्कण्ठते,
- मुग्धेयं किल पश्य तस्य हृदयान्निष्क्रान्तिमाकाङ्क्षति।।”
यदि कहा जाय कि फिर तो आलम्बन और स्थायीभाव एक ही हो गया, तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि व्यवहार सिद्ध ईश-जीव के भेद के समान ही बिम्ब-प्रतिबिम्ब के भाव का भेद यहाँ भी है।
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