भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
भक्तिरसामृतास्वादन
बिम्ब ही मन की द्रवावस्था में पड़कर प्रतिबिम्ब कहा जाता है। “आनन्दाध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते”,“आनन्देन जातानि जीवन्ति, आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्ति” इत्यादि श्रुतियों से प्रपंच की आनन्दात्मक ब्रह्मैक्योत्पादन निमित्तिकता सिद्ध होती है। कान्तादि विषय भी कारणानन्द रूप ही हैं, मायाकृत आवरण और विक्षेप के कारण उनकी अखण्डानन्द रूप से प्रतीति नहीं होती। अकार्यों का भी कार्याकार रूप से भान होता है-
अज्ञात ज्ञापकत्त्व ही प्रमाणों का प्रामाण्य हैं। स्वप्रकाश स्वरूप से भासमान चैतन्य ही अज्ञात है, जड़ नहीं। जड़ के स्वतः अभासमान होने से वहाँ आवरण की कोई अपेक्षा ही नहीं है। कान्तादिविषयक भानों के प्रामाण्य के लिये अज्ञात कान्ताद्यवच्छिन्न चैतन्यविषयक आवरण के हट जाने पर कान्ताद्यवच्छिन्न रूप से परमानन्द रूप उपादान चैतन्यरूप का ही भान होता है, किन्तु अनवच्छिन्न स्वरूप का भान नहीं हुआ, इसीलिये सद्योमुक्ति या स्वप्रकाशत्व भंग की प्रसक्ति नहीं है। इससे सिद्ध हुआ कि विषयावच्छिन्न चैतन्य ही द्रुत अन्तःकरण की वृत्ति में उपारूढ़ होकर स्थायी भाव और रसस्वरूप हो जाता है। कान्तादि लौकिक रस भी परमानन्द रूप ही है। फिर भी जड़ के सम्पर्क से उसमें न्यूनता है। भक्ति में अनवच्छिन्न चिदानन्दघन भगवान का स्फुरण होने से उसकी परमानन्दरूपता स्फुट ही है। जो लोग कहते हैं कि “रसं ह्येवायं लब्ध्वा आनन्दी भवति” अर्थात रसस्वरूप परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त करके ही यह जीव आनन्दित होता है, इस वाक्य में अयं पदार्थकर्तृक लाभ कर्म ही रस शब्द से कहा गया है। भग्नावरण चैतन्य ही अयं पदार्थ है और वही कर्म भी, फिर कर्ता और कर्म दोनों की एकरूपता हो गयी। किन्तु यह ठीक नहीं, क्योंकि सावरण चैतन्य ‘अयम्’ पदार्थ और निरावरण चैतन्य कर्म पदार्थ है, इस औपाधिक भेद के मानने से कोई भेद नहीं आता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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