भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
ज्ञान और भक्ति
यहाँ ज्ञानपक्ष के पोषकों का कहना है कि ज्ञान दीपक ही नहीं, मणि भी नहीं, किन्तु दिव्य सूर्य है। उसके उदय होते ही अविद्या, अन्धकार और उसके उपद्रव एवं तत्सम्बन्धी उलूकादि सब मिट जाते हैं। अविद्या, तत्कार्यात्मक प्रपंच के मिटने का दूसरा उपाय ही नहीं है। शरणागति, आत्मसमर्पण भी पूर्णरूप से ज्ञान पक्ष में ही बनता है। ज्ञान बिना प्राणी देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि तक का समर्पण कर सकता है, परन्तु आत्मा का तो समर्पण तभी बन सकता है, जब प्रत्यक्चैतन्याभिन्न परब्रह्म का बोध हो। जैसे घटाकाश महाकाश में आत्मसमर्पण करता है, तरंग महासमुद्र में आत्मसमर्पण करता है, वैसे ही जीवात्मा, देह, इन्द्रिय, मन और बुद्धि अहंकार से भिन्न चिदात्मरूप को शुद्धब्रह्म में समर्पण कर देता है, और तभी आश्रय-त्वेन या संरक्षकत्वेन वरणरूप शरणागति प्राप्त होती है। इसी पक्ष का समर्थन- “मामेकं शरणं व्रज”, “मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते” इत्यादि में किया गया है। भगवत्स्वरूप प्रपत्ति या शरणागति में माया की निवृत्ति होती है, तभी समस्त अनर्थों की निवृत्ति होती है। भगवान की प्रीति भक्ति परम कल्याणमयी होती है, इसमें सन्देह ही क्या? महानुभावों ने भक्ति और ज्ञान के साध्य, साधन और स्वरूप में भेद कहा है। द्रवी भूत मन की सगुण, साकार सच्चिदानन्दघन परब्रह्माकाराकारित मानसीवृत्ति भक्ति है, और द्रवानपेक्ष मन की निर्विकार परब्रह्माकार मानसीवृत्ति ज्ञान है। भगवद् गुणगणालङ्कृत ग्रन्थों के श्रवण, मनन से भक्ति होती है, साधन सम्पन्न होकर शुद्ध बुद्धमुक्तब्रह्मबोधक वेदान्त ग्रन्थों के श्रवण से ज्ञान होता है। भक्ति में प्राणिमात्र का अधिकार है। ज्ञान में साधन चतुष्टय सम्पन्न उच्च अधिकारी का ही अधिकार है। ज्ञान का फल निर्विकार ब्रह्मात्मनाऽवस्थान उच्च अधिकारी का ही अधिकार है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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