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अर्थात मेरा मन निर्गुण परब्रह्म में परिनिष्ठित था फिर भी उत्तम श्लोक भगवान की लीला ने मेरे चित्त को खींच लिया। श्रीहरि के गुणों से आक्षिप्त मति होकर भगवान बादरायणि ने श्रीमद्भागवतरूप महाख्यान का अध्ययन किया है-
- ‘हरेर्गुणाक्षिप्रमतिर्भगवान् बादरायणिः।
- अध्यगान्महदाख्यानं नित्यं विष्णुजनप्रियः।।”
- “लखी जिन लाल की मुसकान।
- तिनहिं बिसरी बेद बिधि सब योग संयम ज्ञान।।”
- “आत्मारामाश्च मुनयो निर्ग्रन्था अप्युरुक्रमे।
- कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थंभूतगुणो हरिः।।”
फिर भी वेदान्तिगण इनके कुछ अंशों में विमति रखते ही हैं, उनकी दृष्टि में जो निरतिशय परमानन्दरसात्मक वस्तु है वही तो ब्रह्म है और उससे बढ़कर किसी फल की कल्पना भी असंभव है। अनन्तपदसमभिव्याहृत ब्रह्म पद का अर्थ ही निरतिशय बृहत् है। सर्वविधपरिच्छेदशून्य ही निरतिशय बृहत् होता है। ऐसा होने पर भी यदि सोपप्लव एवं अस्वप्रकाश हो तो वह निरतिशय बृहत्स्वरूप ब्रह्म पदार्थ होने योग्य नहीं है। अतः स्वप्रकाश परमानन्द रसात्मक ही उसे होना चाहिये। इस तरह अनन्त स्वप्रकाश परमानन्द ही ब्रह्म है। आतप की अपेक्षा सूर्य में जो अतिशयता है वैसी अनंत अतिशयता की कल्पना करते-करते वाचस्पति की भी मति जहाँ परिश्रान्त हो जाय, वही वेदान्तियों का ब्रह्म है।
उसमें ही समस्त विश्व कल्पित है, उसी से जीवादि विविध प्रकार का संसार उपस्थित होता है। उसके साक्षात्कारात्मक ज्ञान से ही समस्त अनर्थों की निवृत्ति होती है। कर्मोपासनादि किसी से भी उत्पन्न होने वाला मोक्ष द्वैतात्म होने से एक संसार ही है। साथ ही उत्पाद्य, प्राप्य, संस्कार्य और विकार्य सभी कर्मफल जैसे अनित्य हैं, वैसे ही कर्मोपासनादि प्राप्य मोक्ष भी अनित्य ही होगा। निष्प्रपंच अद्वैत-सुख के लिये ही समस्त विश्व की निद्रा या सुषुप्ति में प्रवृत्ति होती है। जैसे निम्ब के कीट को निम्ब ही में मिठास लगती है, उसे मिश्री के मीठापन पर हँसी आ सकती है, वैसे ही वादित्र, नृत्य, गीतादि द्वैतसुख में रस लेने वाले संसारियों को अद्वैतसुख में रस नहीं आता। फिर भी वह ऐसी वस्तु है कि चाहे उससे कोई अनभिज्ञतावश द्वेष ही करे, परन्तु वह अपने स्वभावानुसार सबके प्रेम का आस्पद सबमें व्यक्त ही रहता है। आत्मा के ज्ञान और उसकी महिमा से भले ही किसी को चिढ़ हो, परन्तु आत्मा का उत्कर्ष और बड़ाई सभी चाहते हैं। प्रेम भी उसमें सभी को करना पड़ता है।
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