भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
ज्ञान और भक्ति
जब अपने सिद्धान्त में, अपने हठ में, अपने देश, ग्राम, कुल, कुटम्ब, क्षेत्र, वित्त, राज्य में प्रेम होता है, तब क्या अपने में नहीं होगा? जब परमात्मा की ही मूर्तियों में से अपनी इष्ट मूर्ति में ही प्रेम होता है, अपने इष्ट से भिन्न परमात्मा की मूर्ति में प्रेमाभाव ही नहीं, किन्तु द्वेष होता है, तब क्या आत्मा में किसी को प्रेम नहीं होगा? शैव, विष्णुमूर्ति से द्वेष; वैष्णव शिव-मूर्ति से द्वेष, आत्मसम्बन्धाभाव से ही तो करते हैं। अपने इष्ट में तो सबको प्रेम होता ही है। साथ ही आत्म महिमा का असहिष्णु भी अपनी बड़ाई चाहता है, अपने सिद्धान्त की बड़ाई चाहता है, इतना की क्यों, “अहं ब्रह्मास्मि” के सिद्धान्त का खण्डन करने वाले ही अन्त में स्वयं भगवान बनने और रासलीला करने का साहस करते हैं। उनके भक्त उन्हें प्रत्यक्ष अवतारी कहते हैं और वे सुन-सुनकर प्रसन्न होते हैं। कोई श्रीवृषभानुनन्दिनी का अवतार तो कोई प्रिया-प्रियतम दोनों ही का अवतार मानने और मनवाते हैं। यह सब स्वाभाविक आत्मप्रेम का ही विकृत रूप है। तभी तो भगवती श्रुति ने साफ कहा है कि सब कुछ आत्मा के ही प्रेम का शेष है। देवता में भी आत्मार्थ ही होता है, आत्म कल्याण कारक आत्म हितैषी देवता में प्रेम और विपरीत में द्वेष होता है। इसी तरह निम्न-से-निम्न कोटि के जीव और उच्च कोटि से उच्च कोटि के जीव सुषुप्ति में अद्वैत निष्प्रपंच सुख का रस लेना चाहते हैं। किंबहुना उच्च से उच्च कोटि के ईश्वर भी योगनिद्रा में उसी निष्प्रपंच अद्वैत-सुख के अनुभव में लवलीन होते हैं। दिव्यातिदिव्य वैषयिक सुख सामग्रियों के उपस्थित रहने पर भी योगनिद्रा द्वारा निष्प्रपंच अद्वैत-सुख में ही अधिकाधिक प्रवृत्ति होती है। प्राणी दिव्य कान्तादि स्पर्श-सुख से विरत होकर सौषुप्त सुख चाहते हैं, फिर जब सावरण सौषुप्त अद्वैत सुख में प्राणियों की ऐसी प्रीति होती है तो फिर निष्प्रपंच निरावरण अद्वैत ब्राह्म सुख की महिमा कौन कैसे कहे? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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