भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
गणपति-तत्त्व
एवं भगवान गणेश ‘लम्बोदर’ हैं, क्योंकि उनके उदर में ही समस्त प्रपंच प्रतिष्ठित है और वह स्वयं किसी के उदर में नहीं हैं। तथा च- “तस्योदरात्समु-त्पन्नं नानाविश्वं न संशयः।” भगवान् ‘शूर्प-कर्ण’ हैं, क्योंकि योगीन्द्र-मुख से वर्ण्यमान तथा उत्तम जिज्ञासुओं से श्रूयमाण, अतः हृद्गत होकर, शूर्प के समान पाप-पुण्यरूप रज को दूर करके ब्रह्मप्राप्ति सम्पादित कर देते हैं-
गणेश जी ‘ज्येष्ठराज’ हैं। सर्व-ज्येष्ठों (बड़ो) के अधिपति या सर्व-ज्येष्ठ जो ब्रह्मादि, उनके बीच में विराजमान हैं। वही गणेश जी शिव-पार्वती के तप से प्रसन्न होकर पार्वती-पुत्र के रूप में प्रादुर्भूत हुए हैं। श्रीरामचन्द्र और श्रीकृष्णचन्द्र जैसे दशरथ एवं वसुदेव के पुत्र रूप में प्रादुर्भूत होकर भी उनसे अपकृष्ट नहीं हैं, वैसे ही भगवान गणेश, शिव-पार्वती से उत्पन्न होकर भी उनसे अपकृष्ट नहीं हैं, अत: उनकी शिव-विवाह में विद्यमानता और पूज्यता होना कोई आश्चर्य नहीं है। ‘ब्रह्मवैवर्त-पुराण’ में लिखा है कि पार्वती के तप से गोलोक-निवासी पूर्ण परब्रह्म श्रीकृष्ण परमात्मा ही गणपति रूप से प्रादुर्भूत हुए हैं। अतः गणपति, श्रीकृष्ण, शिव आदि एक ही तत्त्व हैं। इसी गणपति-तत्त्व को सूचित करने वाला ऋग्वेद का यह मन्त्र हैं-
इससे मिलता-जुलता ही गणपति-स्तावक मन्त्र यजुर्वेद में भी है। “गणानां त्वा गणपति ग्वं हवामहे” इत्यादि। ऋग्वेद के मन्त्र का सर्वथा गणपति स्तुति में ही तात्पर्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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