भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
गणपति-तत्त्व
अथवा जैसे तत्पद-लक्ष्यार्थ सर्वोपाधिनिष्कृष्ट “सत्यं ज्ञानम्रनन्तं ब्रह्म” एवं लक्षणलक्षित ब्रह्म है, वैसे ही त्वं पदार्थ जगन्मय सोपाधिक ब्रह्म है। इन दोनों का अखण्डैकरस, ‘असि’ पदार्थ में सामंजस्य है। इसी तरह नर और गजस्वरूप का सामंजस्य गणपति-स्वरूप में है। ‘त्वं’-पदार्थ नर-स्वरूप है तथा ‘तत्’-पदार्थ गज-स्वरूप है एवं अखण्डैकरस गणपतिरूप ‘असि’ पदार्थ में इन दोनों का सामंजस्य है। शास्त्रों में नरपद से प्रणवात्मक सोपाधिक ब्रह्म कहा गया है- “नराज्जातानि तत्त्वानि नराणीति विदुर्बुधाः।” गजशब्दार्थ शास्त्रों में ऐसा किया है- ‘समाधिना योगिनो गच्छन्ति यत्र इति गः, यस्मात् बिम्बप्रतिबिम्बवत्तया प्रणवात्मकं जगज्जायते इति जः।’ समाधि से योगी लोग जिस परमतत्त्व को प्राप्त करते हैं, वह ‘ग’ है और जैसे बिम्ब से प्रतिबिम्ब उत्पन्न होता है, वैसे ही कार्य-कारण-स्वरूप प्रणवात्मक प्रपंच जिससे उत्पन्न होता है, उसे ‘ज’ कहते हैं। ‘जन्माद्यस्य यतः’, ‘यस्मादोंकार-सम्भूतिः यतो वेदो यतो जगत्’ इत्यादि वचन भी उसके पोषक हैं। सोपाधिक ‘त्वं’ पदार्थत्मक नर-गणेश का पादादि कण्ठपर्यन्त देह है। यह सोपाधिक होने से निरुपाधिकापेक्षया निकृष्ट है, अत: अधोभूतांग है। निरुपाधिक सर्वोत्कृष्ट ‘तत्’ पदार्थमय गणेश जी का कण्ठादिमस्तकपर्यन्त गज-स्वरूप है, क्योंकि वह निरुपाधिक होने से सर्वोत्कृष्ट है। सम्पूर्ण पादादि-मस्तकपर्यन्त गणेश जी का देह ‘असि’ पदार्थ अखण्डैकरस है। यह गणेश एकदन्त है। ‘एक’ शब्द ‘माया’ का बोधक है और ‘दन्त’ शब्द ‘मायिका’ का बोधक है। तथा च मौद्गले- “एकशब्दात्मिका माया तस्याः सर्वसमुद्भवम्। दन्तः सत्ताधरस्तत्र मायावाचक उच्यते।।” अर्थात गणेश जी में माया और मायिका का योग होने से वे एकदन्त कहलाते हैं। गणेश जी वक्रतुण्ड भी हैं। “वक्रं आत्मरूपं मुखं यस्य”। वक्र टेढ़े को कहते हैं, आत्मस्वरूप टेढ़ा है, क्योंकि सर्वजगत मनोवचनों का गोचर है, किन्तु आत्मतत्त्व उनका (मन-वाणी का) अविषय है। तथा च ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’ इत्यादि वचन है। और भी-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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