भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
गणपति-तत्त्व
जबकि ब्रह्मतत्त्व एक ही है, तो उसके नाना रूप भिन्न-भिन्न पुराणों में कैसे पाये जाते हैं? इसका उत्तर यही है कि एक ही परमतत्त्व भिन्न-भिन्न उपासकों की भिन्न-भिन्न अभिलषित सिद्धि के लिये अपनी अचिन्त्य लीला-शक्ति से भिन्न-भिन्न गुणगणसम्पन्न होकर नाम रूपवान होकर अभिव्यक्त होता है। जैसे वामनीत्व, सर्वकामत्व, सर्वरसत्त्व, सत्य संकल्पत्वादि गुणविशिष्ट ब्रह्मतत्त्व की उपासना करने से उपासकों को उपास्य-विशेषण गुण ही फल-रूप में प्राप्त होते हैं, ठीक वैसे ही प्राधान्येन विघ्नविनाशकत्वादि-गुणगणविशिष्ट गणपतिरूप में वही परमतत्त्व आविर्भूत होता है। यदि कहा जाय कि फिर इसी तरह से बाह्यभिमत भिन्न-भिन्न देव भी ब्रह्मतत्त्व ही होंगे; तथा इतना ही क्यों, जबकि सारा ही प्रपंच ब्रह्मतत्त्व है, तब गणपति ही क्यों विशेष रूप से ब्रह्म कहे जायँ? इसका उत्तर यही है कि यद्यपि अधिष्ठानरूप से बाह्याभिमत देव तथा तत्तद्वस्तु सकल ब्रह्मरूप कहे जा सकते हैं, तथापि तत्तद् गुणगणविशिष्टि रूप से ब्रह्मत्त्व तो केवल शास्त्र से ही जाना जा सकता है; अर्थात शास्त्र ही जिन-जिन नामरूप गुणयुक्त तत्त्वों को बाह्य बतलाते हैं, वही बाह्य हो सकते हैं, क्योंकि यह कहा जा चुका है कि अतीन्द्रिय वस्तु का ज्ञान कराने में एकमात्र शास्त्र ही प्रमाण हो सकता है। शास्त्र मुख्यरूप से वेद और वेदानुसारी स्मृतीतिहास-पुराणादि ही हैं, यह बात आगे पूर्ण रूप से विवेचित की जायगी। शास्त्र गणपति को पूर्ण परब्रह्म बतलाते हैं। पर्वोक्त ‘गणपत्यथर्व’-श्रुति में गणपति को “त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि” ऐसा कहा गया है। उसका अभिप्राय यह है कि गणपति के स्वरूप में नर तथा गज इन दोनों का ही सामंजस्य पाया जाता है। यह मानो प्रत्यक्ष ही परस्पर-विरुद्ध से प्रतीयमान तत्पदार्थ तथा त्वं पदार्थ के अभेद को सूचित करता है, क्योंकि तत्पदार्थ सर्वजगत्कारण सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान परमात्मा होता है, एवं त्वं पदार्थ अल्पज्ञ अल्प शक्तिमान जीव होता है। उन दोनों का ऐक्य यद्यपि आपात-विरुद्ध है, तथापि लक्षणा से विरुद्धांश-द्वय का त्याग कर एकता सुसम्पन्न होती है। तद्वत् लोक में यद्यपि नर और गज ऐक्य असम्मत है, तथापि लक्षणा से विरुद्धधर्माश्रय भगवान में उसका सामंजस्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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