भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
इष्टदेव की उपासना
काशी रूपी अग्नि जब उस बीज को भस्मीभूत कर डालता है, तब दुःखरूप महावृक्ष ही कैसे उत्पन्न हो सकता है? जिससे समस्त अभीष्ट मनोरथों को प्राप्त किया जा सकता है और जहाँ जाने पर फिर शोक-सन्ताप का भय नहीं रह जाता, ऐसे वैकुण्ठ से श्रीविश्वनाथ की पूजा करने के लिए मैं नित्य नियमपूर्वक उस जगद्वन्द्य काशी में आया करता हूँ। तीनों लोंको की रक्षा करने में समर्थ माया की जो परम शक्ति है, उसको देने वाले सुदर्शन चक्र के दाता श्रीविश्वनाथ ही हैं। पूर्वकाल में जालन्धर नाम का एक दैत्य हुआ था, जिसके पराक्रम से मैं भी भयभीत हो गया था। किन्तु भगवान श्रीशंकर ने अपने पैर के अगूँठे के अग्रभाग से चक्र बनाकर, उससे जालन्धर को मार डाला था। अपने नेत्र-कमलों से भगवान शंकर की पूजा करके मैंने वही चक्र उनसे प्राप्त किया। दैत्य समुदाय को मर्दन करने वाला वही यह सुदर्शन चक्र मेरे पास है। समस्त दुष्ट प्राणियो को भगाने वाले उस सुदर्शन चक्र को तुम्हारी रक्षा के लिए आगे भेजकर मैं यहाँ आया हूँ। अब इस समय श्रीविश्वनाथ का दर्शन करने के लिए मैं काशी की ओर चल रहा हूँ।’’ उसके बाद पंचकोशी की सीमा के पास पहुँचकर वे गरुड़ से नीचे उतरे और उन्होंने ध्रुव का हाथ पकड़कर मणिकर्णिका में स्नान किया। फिर श्रीविश्वनाथ का पूजन करके ध्रुव के हित की कामना से कहा- ‘‘हे ध्रुव, तुम इस अविमुक्त वाराणासी क्षेत्र में प्रयत्न पूर्वक भगवान के लिंग की स्थापना करो। इससे त्रैलोक्यस्थापन करने का अक्षय पुण्य तुम्हें प्राप्त होगा’’ इत्यादि। ऐसे इस गम्भीर शास्त्रीय अभिप्राय को न समझकर शेव-वैष्णव-नामधारी पाखण्ड से नष्टबुद्धि मायामोहित जन ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र में भेदभाव देखते हैं। यह नहीं जान पाते कि वे तीनों एक ही सच्चिदानन्दघन पूर्ण अद्वितीय तत्त्व हैं।
वे ऐसे सैकड़ों शास्त्र वचनों से उपदेश किये गये अभेद को नहीं देखते। इस बात की उपेक्षा करते हैं कि एक ही परम कारण तत्त्व अनेक रूप में विराजमान है। उन परमेश्वर के अनेक रूपों में से किसी एक को लेकर दूसरे रूपों की निन्दा करते हुए आपस में कलह करते हैं। ऐसा करके मानों अपने उसी आराध्य भगवान से ही द्रोह करके नरक में जाने की तैयारी करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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