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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
इसके साथ एक बात यह भी थी कि छोटे बछड़े श्रीश्याम और श्रीबलराम के साथ इतने मिल-जुल गये थे कि उनके बिना आँगन के बाहर पैर ही नहीं रखते थे। दोनों भैया उनकी पूंछ पकड़ कर व्रज कर्दम में खेलते, वे उनको एकटक दृष्टि से देखते, सूंघते और जिह्वा से चाटते थे। ऐसी स्थिति में बड़े होकर भी श्रीकन्हैया और श्रीदाऊ को छोड़कर डण्डा की मार खाकर भी वे बाहर जाने का नाम न लेते। किसी समय तो वे स्वयं कृष्ण हो गये। आगे चलकर गायों ने भी बछड़ों का ही अनुकरण किया, उन्होंने भी अपने प्रिय श्यामसुन्दर के बिना कहीं भी जाना-आना छोड़ दिया। अब तो एक समस्या उपस्थित हो गयी। इधर गोपालन निज धर्म था ही। जहाँ धर्म का सम्बन्ध आया, नन्द, यशोदा दोनों ही मूक हो गये। गर्गाचार्य की प्रतीक्षा होने लगी। वन, लता, मृगादि के मनोरथ पूर्ण होने का अवसर आ गया। स्मरण-समकाल ही गर्ग जी पधारे और तुरंत दूसरे ही दिन गोपाष्टमी का ही मुहूर्त निकल आया, मानो प्रतीक्षा में ही बैठे थे। परन्तु गोपियाँ बड़े कष्ट में पड़ गयीं। जिन्हें एक क्षण भी बिना देखे नहीं रह सकतीं, उनका अब दिन भर के लिये असह्य वियोग कैसे सहा जायगा? दूसरे, ‘इतने मधुर, सुकोमल मनमोहन, कण्टकाकीर्ण वन में कैसे विचरेंगे’ की चिन्ता तो सभी को और भी अधिक कष्ट दे रही थी। परन्तु बड़े कष्ट से उन्होंने सब कुछ सहा। गोपजन के कुतूहल में भावी कष्ट कुछ विस्मृत हुआ। बड़े समारोह से गोपूजन हुआ, गौ, वत्स वस्त्रालंकारादि से सजाये गये; धूप, दीप, नैवेद्य के साथ उनकी परिक्रमा, दण्डवत प्रणाम आदि हुआ। माता यशोदा ने, गोपांगनाओं ने श्रीश्यामसुन्दर को पादुका पहनकर वन जाने का प्रस्ताव रखा, परन्तु उन्होंने अस्वीकार किया, कहा - यह धर्म विरुद्ध है, जब हमारे उपास्य देवता गौएँ बिना पादत्राण के विचरेंगी, तब हम भी वैसे ही रहेंगे। अत: गोपदेवियों की चिन्ता है-
और भी “... तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित् कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः।”[1] यदि प्रभु के पादों में पादत्राण होते, तो पद-पद पर काँटा आदि गड़ने की गोपियों की चिन्ता न होती। अतः यह सौभाग्य किसी को प्राप्त नहीं हुआ। यह तो श्रीवृन्दावन भूमि को ही प्राप्त हुआ, जिसने निरावरण केशव-चरणों को प्राप्त किया। अत: “वृन्दावनं सखि भवो वितनोति कीर्त्तिम” कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (भागवत, गोपीगीत)
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