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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
स्पर्शोत्सवोत्पुलकितांगरुहता ही इसमें प्रमाण है। फिर कहती है- “हे भूमि! आपकी जो यह रोमावली खड़ी है, वही वृक्ष, लता, अंकुर हैं। बिना आनन्दोद्रेक के रोमांच कैसा? यह अनुभव सिद्ध है। हम भी जब चरण स्पर्श करती हैं, तब रोमोत्सवोद्गम होता है।” मानो भूमि ने कहा- “व्रजप्रमदाओ! ये वृक्ष, लता आदि तो श्रीकृष्ण जन्म के पहलीे से हैं।” यह सोचकर व्रजांनगाओं ने उत्तर दिया- “यदि हमारे श्यामसुन्दर के स्पर्श का फल इसे नहीं मानती, तो उन्हीं के अंशावतार वामन के पराक्रम का यह फल होगा। “अप्यंघ्रिसम्भव उरुक्रमविक्रमाद्वा” जब महाविराट स्वरूप से वामन भगवान ने तुम्हें नापा, उस समय के स्पर्श का यह फल होगा। यदि इससे भी पहले का इसे मानती हो तो फिर “आहो वराहवपुषः परिरम्भणेन” भगवान वराह ने तुम्हारा उद्धार करते समय आलिंगन किया, उससे यह रोमांच उत्पन्न हुआ होगा और कोई प्रकार ही नहीं, यह अन्यथा सम्भव ही नहीं। यह रोमांच तो हमारे मनमोहन के ही किसी संस्पर्श से सम्भव है। हास्य न समझो, सखि झिते! सच बतलाओ, तुमने कौन-सा तप किया है?” और जगत भी लता आदि हैं, परन्तु वृन्दारण्य की लता, दूर्वा आदि अलौकिक हैं। जितने इस समय उपलब्ध लता आदि हैं, उनमें भी लोकोत्तरता है, पर दिव्य दृष्टि मिले तब वह दीख पड़े। गोपांगनाओं को वह दृष्टि प्राप्त थी। श्रीवृन्दावन धाम में ऐसे-ऐसे लताकुंज हैं, जो स्फटिक और सुवर्ण के विशाल प्रासादों का अनुकरण करते हैं। यहाँ किसी-किसी स्थान की भूमि तो स्पष्ट ही स्फटिकवर्ण की दीख पड़ती है। उसमें नीलमणि के वृक्षों की शोभा देखते ही बनती है, मालूम होता है, महाभाव रूप श्रीवृषभानुनन्दिनी लताओं का श्रीश्याम तमाल-तरुओं के साथ अनन्त सम्मिलन हो रहा है। यहाँ के चन्द्र, सूर्य तक भिन्न हैं। अन्यत्र के और यहाँ के चन्द्र-सूर्यादि में जो भेद नहीं मालूम होगा, वह परम सूक्ष्म अवबोध का विषय है। गोपालों में और श्यामसुन्दर में सभी प्रकार की बाह्या एकता थी, प्राकृत पुरुष-बालक की तरह यशोदा ने उन्हें बाँधा था- “बबन्ध प्राकृतं यथा।” यदि सर्वज्ञता आदि की प्रतीति हो जाय, तो सभी खेल बिगड़ जाय। श्रीश्यामसुन्दर वसुदेव-देवकी के यहाँ भी वैसे ही थे जैसे नन्द यशोदा के यहाँ। परन्तु वसुदेव के यहाँ ऐश्वर्य था। उत्पन्न होते ही- “तमद्भुतं बालकमम्बुजेक्षणम् ..” के रूप में वसुदेव-देवकी को उनका दर्शन मिला था। इस ऐश्वर्य-दर्शन से वात्सल्य रस में जो तरलता थी उसमें कठिनता आ गयी थी। शश्वदुद्भूत शुद्ध वात्सल्य यशोदा आदि के यहाँ था, ऐश्वर्य भी था, पर तिरोहित। अत: प्राकृतता की प्रतीति हुई। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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