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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
श्रीसत्यभामा परेशान थीं, किंकर्तव्य विमूढ़ थीं। उधर श्रीरुक्मिणी को इस काण्ड का पता लगा, वे आयीं। उन्होंने एक प्रकार निकाला, कहा बहिन, यह सब हीरे-हारे उतार दो, इनकी जगह एक तुलसी-दल, केवल एक तुलसी-दल रखो। ऐसा ही हुआ। श्रीकृष्ण का पलड़ा ऊपर उठ गया। यह है तुलसी का महत्त्व। अत:, तुलसीदल पर श्रीकृष्ण अपने को बेचते हैं, जिसकी इच्छा हो, खरीद ले- ‘तुलसीदलमात्रेण जलस्य चुलुकेन च, विक्रीणीते स्वमात्मानं.....” इन दृष्टियों से गोपांगनाओं ने कहा- गोविन्द चरण प्रिये-हे तुलसि, आप परम सौभाग्यवती हो, कल्याणी हो। हम तो श्रीश्याम विप्रयोग से अति तप्त हैं, पर आपका उनसे कभी विच्छेद होता ही नहीं। आपको श्रीगोविन्द के चरण अतिप्रिय हैं। वैसे वैजयन्ती माला के साथ भगवान के वक्षःस्थल में भी तुलसी विराजमान है, पर उसे उनके श्रीचरणों से अनुराग है। जैसे तुलसी को भगवान प्रिय हैं, तुलसी भी भगवान को वैसे ही प्रिय है। कहा है- “तेऽति प्रियोऽच्युतः..” इस अच्युत से यह बतलाया गया है कि-तुलसी का भगवत्पादारविन्द से कभी विश्लेषण होता ही नहीं, उसका अविघटित सम्बन्ध है। यहाँ ‘गोविन्द चरण प्रिये’ इस पद में ‘चरण’ से पूज्यता ली गयी है। क्योंकि आगे गोपियों ने कहा- श्रीतुलसी की माला मोहन के वक्षःस्थल पर विराजमान है, उसके मकरन्दरसामृत के लोभी भ्रमर भी उसे घेरे हैं। यदि चरण ही प्रिय होता तो “सहत्वालिकुलैर्विभ्रत् दृष्टस्तेऽतिप्रियोऽच्युतः” आदि कैसे कहा जाता? अस्तु। यहाँ व्रजांगना तुलसी का भाग्य सराह रही हैं- सखि तुलसि, देखो! एक हमारा भाग्य है और एक आपका। हमें वे श्यामविहारी दर्शन देने से भी जी लुका रहे हैं, हम कोई भार नहीं, हम चरणस्पर्श मात्र चाहती हैं। आप तो उनके विशाल वक्षःस्थल पर विराजमान हो। हमें तो वह अति दुर्लभ हैं, रंक की साम्राज्य-कामना है। हमने सब कुछ छोड़ा; गुरुजनलज्जा आदि सबको तिलांजलि दी। तब जन्म-जन्म की तपस्या से वह प्राणाधार आज प्राप्त हुए थे, परन्तु हम प्राप्त न कर सकीं। देखो सखि! तुलसि हमारे साथ कोई उपद्रव नहीं और आपके साथ ये भौंरे के झुण्ड मँडरा रहे हैं, इतने पर भी यह आपका ही सौभाग्य है जो इन सबके साथ वे देवकीसुत आपको धारण किये रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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