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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
हम तो अलिकुल-माला से व्याप्त नहीं हैं- अलिकुल संकुल नहीं हैं, फिर भी दर्शन तक नहीं देते, छिपते फिरते हैं। आप अति प्रिय हो। प्रिय लक्ष्मी भी है। उनके वाम वक्ष पर वामावर्त सुर्णरोमराजी भी लक्ष्मी ही है। “हारहासउरसि स्थिरविद्युत्....” वह वहाँ लता की तरह विराजमान है। परन्तु सखि, आप उनसे भी बढ़कर हो, आप सर्वांग-व्यापिनी हो, दोनों वक्षःस्थलों पर विराजती हो, वह भी भौरों के साथ। इससे लक्ष्मी अवश्य नाराज होती होंगी-‘मेरी छाती पर सौत बिठा दी।’ सो यहाँ तो साक्षात् ही तुम्हें धारण करके सौत बैठा दी। देवकृ भगवत्स्तुति से भी प्रसंग पुष्ट होता है-
श्रीलक्ष्मी के लिये सापत्न्भाव के विषय वाली उस सूखी वरमाला से सम्पादित भक्त के पूजन को सुसम्पादित बहुत उत्तम मानने वाले हे प्रभो, आपका चरणारविन्द हमारे पापों को नष्ट करे। वनमाला वन्यपुष्प-स्तवकों की बनी है, उसमें तुलसी मिश्रित है-
वह इस समय बासी हो चुकी, कुरकुराती है, चुभती भी है, परन्तु वह भक्त की पहिनायी हुई है, उसे जब तक भक्त नहीं उतार दे, प्रभु नहीं उतारते। लक्ष्मी उससे प्रतिस्पर्द्धा करती है- ‘प्रस्पर्द्धिनी भगवती प्रतिपत्निवच्छ्री:।’ भगवान लक्ष्मी की नाराजगी की परवाह न करके उसे धारण किये हैं। ‘पर्युष्टया-पर्युषितया (इडभावश्छान्दसः) ‘वशकान्तौ’ से बना है। यह तुलसीमाला सर्वांग में कान्तिमती बनकर विराजती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (भागवत, स्कं0 11, अ. 6, श्लोक 12)
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