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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
वे अवश्य आपको मदद देंगी-
सारांश यह कि काम न चलने पर सबको अबलाओं की शरण लेनी पड़ी है। यहाँ गोपीजन ने भी यही निश्चय किया-ये वृक्ष-पुरुष हमारी पीड़ा नहीं जानते। चलो, इस तुलसी से पूछें, ये परम अन्तरंगा हैं- “कच्चित्तुलसि कल्याणि, गोविन्दचरणप्रिये” हे तुलसि, आपकी तुलना जग में नहीं है। एक बार श्रीनारद कल्प वृक्ष का पुष्प लाये, उसे श्रीकृष्ण को समर्पित किया। उन्होंने श्रीरुक्मिणी को दे दिया। नारद जी को अवसर मिला, नारद विद्या करने का। उन्होंने झट श्रीसत्यभामा से जाकर कहा-‘आप कहती थीं, ‘मैं भगवान् को अति प्रिय हूँ।’ पर वह पुष्प तो उन्होंने आपको नहीं दिया।’ नारद जी का मन्त्र चल गया। श्रीसत्यभामा मान करके बैठ गयीं। श्रीकृष्ण को यह सब ज्ञात हुआ। वे श्रीसत्यभामा के पास गये। उनको समझाया-“हम तुम्हें कल्प वृक्ष ही ला देंगे।” और ला दिया। घूमते-घामते श्रीनारद फिर वहाँ आ निकले। सत्यभामा ने उन्हें अपना सौभाग्य बतलाया। उन्होंने दान के गीत गाकर कल्प वृक्ष के सहित श्रीकृष्ण को दान कर देने की सलाह दी। इस दान लेने के अधिकारी की खोज होने पर स्वयं नारद दान पात्र बने। श्रीसत्यभामा ने श्रीकृष्ण से कहा-‘नाथ, जन्मजन्मान्तर में, मैं आपकी ही दासी बनूं, आप ही मुझे मिलें, एतदर्थ मैं आपको दान कर देना चाहती हूँ।’ दान हो गया। अब श्रीकृष्ण से नारद जी ने कहा-चलिये, आप मेरा कमण्डलु उठाइये। मुझे आप महादान में मिले हैं। श्रीकृष्ण नारद के साथ चल पड़े। अब तो बड़ी आफत मची। श्रीसत्यभामा ने स्वप्न में भी यह नहीं विचारा था कि इस दान से उन्हें श्रीकृष्ण से वियुक्त होना पड़ेगा। अन्ततोगत्वा श्रीनारद किसी तरह मनाये गये। श्रीकृष्ण के बदले में उनके बराबर हीरे, माणिक्य, जवाहिरात सब तराजू में चढ़ाये गये, पर श्रीकृष्ण का पलड़ हिला तक नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (स्तो. 11, श्लोक 25)
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