भक्ति सुधा -करपात्री महाराज पृ. 1181

भक्ति सुधा -करपात्री महाराज

श्री रासपञ्चाध्यायी

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वह यह कि श्रीनन्दनन्दन में ही गोपांगनाओं के प्राण, आत्मा सब कुछ है- “तस्मिन्नेवात्मा, प्राणा या सान्तास्तदात्मिकाः” उन व्रजदेवियों का यही सबसे बड़ा भाव है। ये कहती हैं-

“यत्ते सुजातचरणाम्बुरुहं स्तनेषु भीताः शनैः प्रिय दधीमहि कर्कशेषु।
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित् कूर्पादिभिर्भ्रमति धीर्भवदायुषां नः।।”

हे प्रिय! आपके चरण अत्यन्त सुकोमल हैं, उनमें कमल की पांखुरी के भी गड़ जाने का भय रहता है। आपके उन चरणों को हृदय के ताप को दूर करने के लिये हम अपने स्तनों में-हृदय में धारण करती हैं, पर नाथ! हम डरती हैं- आपके कमल कोमल पादों को कर्कशकठोर स्तनों में कैसे धरें, कहीं वे उनमें गड़ न जायँ। हे प्राणजीवन! आप उन्हीं कोमल चरणों से कण्टकाकीर्ण अरण्यों में घूमते हो, इससे हमें और भी व्यथा होती है। हमारे तो प्राणों के भी प्राण, जीवन आप हो।

‘आपको यों घूमते देखकर हमारी बुद्धि चकरा जाती है, हम क्या करें?’ कितना ध्यान है, कितनी भावुकता है; क्या यह प्राकृत विषयलोलुप कामिनियों को होगी? फिर आध्यात्मिकादि ताप भी तभी दूर होंगे, जब प्रभु श्रीहरि के चरण हृदय में निहित होंगे। बात यह है कि लौकिक कामुक-कामिनी आदि में स्वसुखसुखित्व का भाव होता है, वे सब अपने सुख के लिये प्रेम करते हैं। लोक में पिता आदि अपने आनन्द के लिये बालक के कोमल कपोल का चुम्बन करते हैं, उसे उनकी दाढ़ी चुभती है, वह रोता है, पर इसकी परवाह किसे रहती है?

वहाँ तो चुम्बन की बौछार (परम्परा) लग जाती है। इसलिये कहा है- “आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति” किन्तु श्रीव्रजांगनाओं के विषय में यह बात नहीं है, यहाँ तो तत्सुखसुखित्व का भाव है। यह श्लोक लज्जा का स्थान नहीं, जैसा कि अनभिज्ञ कह बैठते हैं। अपितु श्रीव्रजदेवियों के विशुद्ध, गाढ़ प्रेम से आक्षिप्त हृदय का दर्पण है, उच्च भावुकता का केन्द्र है। वे कहती हैं- क्या करें, आपके चरण हृदयों में धरे बिना ताप दूर नहीं होगा यह सभी शास्त्रों का सिद्धान्त है पर डरती हैं हम, यह स्तन (हृदय) कठिन है, कहीं चुभ न जाय, पर आप इनसे वन में घूमते हो, क्या इनमें तृण, गुल्म, पत्र आदि न गड़ते होंगे?

अवश्य गड़ते होंगे। फिर भी हाय! हम जीवित हैं। परन्तु हमारा कुछ बस नहीं चलता, क्योंकि हमारे प्राण विधाता ने आपके हाथ में दे दिये हैं, नहीं तो ये कब के निकल गये होते। अतः “तस्मिन्नेव आत्मा प्राणो यासान्ताः तदात्मिकाः” यह ठीक कहा गया। जब तक श्रीश्यामसुन्दर प्राणेश्वर इनके अन्तर में विराजमान हैं, तब तक ये मर सकती नहीं, तीव्र ताप सहकर भी जीवित रहेंगी, डोलती फिरतीं काम-काज करती रहेंगी। इसी से “रमापतेरपि आक्षिप्तं चित्तं याभिस्ताः” यह संगत है। जो श्यामसुन्दर परमसमाहितचेता योगीन्द्र मुनीन्द्रों के चित्त को भी आकृष्ट कर लेते हैं, उनके चित्त को गोपवधूटियों ने आकृष्ट कर लिया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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क्रम संख्या विषय पृष्ठ संख्या
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9. शिवलिंगोपासना-रहस्य 63
10. श्री विष्णु-तत्त्व 88
11. गायत्री-तत्त्व 97
12. श्री भगवती-तत्त्व 102
13. बुद्धावतार का प्रयोजन 178
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44. वेणुरव 512
45. किरातिनियों का स्मररोग 517
46. वेणुगीत 525
47. चीरहरण 691
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49. निर्गुण या सगुण? 781
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51. सर्वसिद्धान्त-समन्वय 808
52. क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा? 839
53. श्रीरासलीलारहस्य 854
54. श्री रासपञ्चाध्यायी 1142

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