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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
इस प्रकार ‘आकृष्टचित्ता रमापतेः’ के अर्थ में षष्ठी है। अतः यह अर्थ भी होता है कि श्रीरमापति ने राजहंस, गजराज और सिंह की गति को लज्जित करने वाली गति, अनुराग, हास, अलसवलितादि विभ्रम तथा मनोरमालाप से व्रजांगनाओं के चित्त को खींच लिया, क्योंकि उन्होंने सोचा कि ‘यदि चित्त इनके पास रहेगा, तो ये हमारे विप्रयोगजन्य तीव्र ताप में सन्तप्त होंगी।’ व्रजांगनाओं को ‘प्रमदा’ कहा गया। ‘प्रकृष्टो मदो यासाम्’ इस व्युत्पत्ति से भाव यह कि दैहिक सब प्रपंच भूल गयीं, जिस मन के रहने में सन्ताप, वियोग होता है, उसे तो भगवान ने पहले ही हर लिया। अब सुख-दुःख ही किसे हो? फिर श्रीभगवान ने गोपांगनाओं में प्रमद मादक मद उत्पन्न किया, जिससे वियोगताप में भी उन्हें संयोग प्रतीत हुआ, इससे वह वियोगजन्य तीव्र ताप उनके अन्तर में प्रविष्ट न हो सका। इतने पर भी यदि श्रीमनमोहन का विप्रयोग उन्हें बाधा पहुँचाये तो ठीक नहीं। अतः ‘तास्ता विचेष्टा जगृहुस्तदात्मिकाः।’ तदात्मिका का अर्थ है- ‘स एव रक्षकत्वेन वर्तमानो हृदि यासान्ताः।’ अर्थात वे ही श्यामसुन्दर रक्षक रूप से जिनके हृदय में विराजमान हैं, वे व्रजांगना वियोगताप की ओर से निर्भीक बना दी गयीं, क्योंकि अपने प्रेमी की उपेक्षा करके उसे छोड़ देना उचित नहीं। पर सौभाग्यमद के होने पर उसे भी दूर करना अपेक्षित था। ‘गोपागंनाओं के हृदय में वर्तमान रहकर श्रीभगवान ने उनकी रक्षा की’ इस बात को उपनिषद् वचन से श्रीमद्वल्लभाचार्य जी ने भी पुष्ट किया है- ‘को ह्येवान्यात् कः प्राण्यात् यदेष आकाश आनन्दो न स्यात्।’ अर्थात् कौन जीता, कौन चेष्टा करता, यदि भगवान श्रीकृष्ण अन्तर में विराजमान होकर उनका रक्षण न करते। इस तरह ये व्रजांगनाएँ कैसे जीतीं, कैसे श्रीश्यामसुन्दर को ढूंढतीं, यदि उनसे अन्तर में त्राण न पातीं। ‘तदात्मिकाः’ एक और भी अर्थ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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