भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
हम कह चुके हैं-
यद्यपि तत्त्वज्ञ की प्रपंच का मिथ्यात्व निश्चय करके सजातीय, विजातीय और स्वगत भेदशून्य परब्रह्म में ही स्थित होते हैं तथापि चतुर्थ, पंचम और षष्ठ भूमिका वाले ज्ञानियों का आत्मप्रेम भी उतना प्रौढ़ नहीं होता जैसा कामुकों का अपनी प्रेयसी के प्रति होता है। इसी से विद्यारण्य स्वामी ने जीवन्मुक्ति विवेक में तत्त्वज्ञान के पश्चात् भी मनोनाश की आवश्यकता बतलायी है, क्योंकि आत्मज्ञान हो जाने पर भी प्रारब्ध की प्रबलता रहने के कारण विक्षेप बना ही रहता है। इसी से चित्त ब्रह्मानुसन्धान से हटकर विषयों की ओर चला जाया करता है। ज्ञानी लोग प्रपंच चिन्तन में अनर्थ समझकर ही उसे उस ओर से हटाकर पुनः ब्रह्मानुसन्धान में जोड़ते रहते हैं। ऐसा करते हुए भी उनका चित्त कई बार आत्मानुसंन्धान से हटकर अनात्म पदार्थों की ओर चला जाता है। आत्मानुसन्धान में उसकी स्वारसिक प्रवृत्ति नहीं होती। इसी के लिये योगाभ्यास किया जाता है। निरन्तर योगाभ्यास करते-करते ब्रह्मतत्त्व में उसकी स्वारसिक प्रवृत्ति हो जाती है। ऐसा नारायण-परायण महापुरुष सुदुर्लभ है। व्रजांगनाओं की ऐसी स्थिति स्वाभाविक थी। भगवान के अनेक प्रकार से तिरस्कार करने पर भी उनकी मनोवृत्ति भगवान से विचलित नहीं हो सकती थी। व्रजांगनाएँ तो परम सिद्ध थीं; उनके चरणकमल तो योगीश्वरों के लिये भी वन्दनीय हैं। परन्तु उन्हें लक्ष्य करके ही भगवान ने सर्वसाधारण के कल्याण के लिये ऐसी कई बाते कहीं हैं जिनकी वे पात्र नहीं थीं। हाँ, उनमें भी जो सुदृढ निष्ठावाली नहीं थीं, उनके लिये वे बातें उपयुक्त भी हो सकती हैं। इस प्रकार कई बार भगवान के उपेक्षा करने पर सम्भव है व्रजांगनाओं को कुछ सन्ताप हुआ हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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