भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अतः उन्हें अपनी अवहेलना से कुछ खिन्न देखकर भगवान ने उन्हें आश्वासन देने के लिये कहा-
‘मैनें जो तुम्हारे विषय में तरह-तरह के पक्षों की कल्पना कर रखी थी वह व्यर्थ थी। मैं अब समझा; आप तो हमारे प्रेम से आकृष्ट-चित्ता होकर ही हमसे मिलने आयी हैं।’ व्रजांगनाएँ वस्तुतः प्रेम के प्रवाह में बहकर ही आयी थीं; वे स्वयं अपनी इच्छा से वहाँ नहीं आयीं। भगवान के मुखारविन्द से वेणुनाद के रूप में निःसृत जो प्रेमतत्त्व उसी ने उन्हें खींच लिया था। व्रजांगनाओं का अन्तःकरण तो स्वयं ही प्रेमामृतपूरित एक महासरोवर के समान था; किन्तु वह अनेकविध प्रतिबन्ध से निबद्ध था। उसे लौकिक-वैदिक मर्यादारूप बहुत से बाँधों ने मर्यादा में रोक रखा था। किन्तु जब यहाँ श्यामघन ने वेणुनादरूप गर्जन करते हुए दिव्यातिदिव्य रस का वर्षण किया तो उससे गोपांगनाओं के हृदयस्थ प्रेमसमुद्र का बाँध टूट गया। उसमें ऐसी बाढ़ आ गयी कि वह और अधिक काल मर्यादा में न रह सका। व्रजांगनाओं ने अपनी मर्यादा की यहाँ तक रक्षा की थी कि शरीर की सुध-बुध भूल जाने पर भी उन्होंने अपने गोपजाति के लिये विहित लौकिक-वैदिक कृत्यों की उपेक्षा नहीं की। वे दधिमन्थनादि गृहकृत्य करती ही रहीं। हाट में गोरस बेचने जातीं, किन्तु प्रेमविभोर होकर ‘दही लो’ कहने के बदले ‘श्याम लो’ पुकारने लगतीं। इससे हम लोगों के लिये उन्होंने यही उपदेश दिया है कि हमें अपने शास्त्रोक्त स्वधर्म का पालन करते हुए ही भगवत्प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिये। “दुहन्त्योऽभिययुः काश्चिद्दोहं हित्वा समुत्सुकाः।” यहाँ जो सार्वत्रिक शतृ प्रत्यय है वह हेतुता का द्योतक है। अतः इसका तात्पर्य यही है कि भगवान के वेणुनिनाद से आकर्षित होने में गोपियों को गोदोहनरूप स्वधर्मानुष्ठान ही हेतु था। अतः हमारा यह बलपूर्वक कथन है कि आप किसी भी परिस्थिति में रहें, अपने लौकिक-वैदिक कृत्यों का यथावत् पालन करते रहें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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