भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
भगवत्प्राप्ति का एकमात्र साधन तो भगवत्सम्मिलन की तीव्रतर तृषा ही है; उस छटपटाहट के बिना भगवत्कृपा अत्यन्त दुर्लभ है।
इस प्रकार दीर्घकाल तक भगवान के लिये सतृष्ण रहते-रहते भी जब साधक को प्रभु की ओर से कोई सहारा मिलता दिखाई नहीं देता तो वह श्रान्त हो जाता है, उसका हृदय कुछ अवसन्न हो उठता है। उस समय प्रभु उस पर अनुग्रह करते हैं। प्रभु के हृदयाकाश में जो अनुग्रहरूप चन्द्र विराजमान है, प्रभु के मन्दहास के द्वारा उसकी शीतल किरणें साधक के सन्तप्त हृदय तक पहुँचकर उसे शान्त कर देती हैं। इस प्रकार प्रभु का अनुग्रह होने पर साधक को कुछ आश्वासन प्राप्त होता है और वह चौगुने उत्साह से साधन में जुट जाता है। यही स्थिति यहाँ व्रजांगनाओं की थी। वे लौकिक-वैदिक सभी प्रकार की श्रृंखलाओं को तोड़कर भगवान की सन्निधि में आयीं थीं; किन्तु यहाँ उनका इस प्रकार तिरस्कार हुआ। जिनके लिये उन्होंने सर्वस्व त्यागकर अनेकविध विघ्नों का सामना किया था वे ही ऐसे निष्ठुरभाव से उनकी उपेक्षा कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में उनके अनाश्वास को अवकाश है या नहीं? परन्तु प्रभु बड़े कृपालु हैं। उनका तात्पर्य उनके तिरस्कार में तो था ही नहीं। वे तो ‘स्थूणानिखननन्याय’ से अपने प्रति उनकी निष्ठा की परीक्षा कर रहे थे; वे तो उनकी निष्ठा को और सुदृढ़ करना चाहते थे। इससे यह नहीं समझना चाहिये कि व्रजांगनाओं के भाव में भी कोई न्यूनता रहनी सम्भव थी। तो वे प्रेममार्ग की आचार्या हैं। मीन और चातक में जो प्रेम उपलब्ध होता है वह तो व्रजांगनाओं के प्रेमसुधासिन्धु का एक कणमात्र है। जीव और परब्रह्म में जो प्रेमसम्बन्ध है, उस प्रेम का तो एक अंश भी मीन और चातक में नहीं है। ‘आत्मनस्तु कामाय सर्व प्रियं भवति।’ किन्तु हाँ, वह प्रेम तिरोहित अवश्य है। तथा व्रजांगनाओं का भगवान के प्रति जो अनुराग है वह तो तत्त्वज्ञ महानुभावों के आत्मप्रेम की अपेक्षा भी कहीं बढ़कर है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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