भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
देखो, महर्लोक निवासी जीवों को किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता; परन्तु वे जो अपने से नीचे के लोगों को परमात्मसुख से वंचित देखते हैं इससे तो उन्हें खेद होता ही है। वस्तुतः देखा जाय तो हम लोग भी नास्तिक प्राय ही हैं। यदि भगवान की सत्ता में हमारा पूरा विश्वास होता तो हमें लुक-छिपकर पाप करने का साहस कैसे होता? भगवान तो अन्तर्यामी हैं, वे तो हमारी मानसिक क्रिया को भी जानते हैं। अतः ऐसी परिस्थिति में हमारे मन की भी दुष्प्रवृत्ति कैसे हो सकती है? इस प्रकार यदि सच पूछा जाय तो हमसे तो नास्तिक ही अच्छे हैं। हम तो ऊपर से आस्तिकता का दावा करते हुए वस्तुतः नास्तिक हैं, किन्तु वे प्रत्यक्ष अपना दोष स्वीकार कर लेते हैं। अतः सिद्ध हुआ कि भगवान का निराकरण करना-यह मायामोहित जीवों का स्वभाव ही है। श्रीमद्भागवतादि में यह प्रसिद्ध ही है कि गर्भावस्था में जीव को भगवान का प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाता है। उस समय उसे अपने पूर्वजन्मों की भी स्मृति होती है, और वह समझता है कि मैं भगवान से विमुख रहने के कारण ही अनन्त जन्मों में भटकता रहा हूँ। उस समय वह भगवान की प्रार्थना करता है। पूर्वजन्मों में भी उसने इसी प्रकार सहस्रों बार प्रार्थना की थी; परन्तु संसार में पदार्पण करते ही उसे उसका कुछ भी ध्यान नहीं रहा। अतः यह देखकर कि मैं अनन्त बार प्रभु के प्रति अपनी प्रतिज्ञा भुला चुका हूँ उसे बहुत संकोच भी होता है; तथापि प्रभु का स्वभाव समझकर वह फिर भी उनके सामने रोता ही है। यही दशा भगवान से मिलने के लिये वन को जाते समय भरत जी की थी-
अहा! प्रभु का स्वभाव कैसा करुणामय है! उन्हें अपराध का तो स्मरण ही नहीं होता, किन्तु थोड़े से भी उपकार को वे बारम्बार स्मरण करते हैं-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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