भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यदि यह हमारे हाथ की चीज होती तो इस प्रकार प्रार्थना क्यों की जाती- ‘माहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्तु’। यदि हम भगवान का निराकरण करने में समर्थ होते तो इसके लिये प्रार्थना क्यों की जाती? परन्तु नहीं, हम सब कुछ जानते हुए भी अनादिमाया से मोहित होकर उनका निराकरण करते हैं। हम जान-बूझकर भी अनन्तानर्थ के निदानभूत संसार में गिरते हैं। परन्तु किया क्या जाय- “केनापि देवेन हृदिस्थितेन यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि।” इसी से महानुभाव लोग नास्तिकों की भी निन्दा नहीं करते; क्योंकि वे जानते हैं कि यह बात उनके वश की नहीं है। एक व्यक्ति अपने कल्याण की कामना से संसार से विरक्त होता है, परन्तु पीछे माया से मोहित होकर वह पतित हो जाता है। इसमें उसका क्या दोष है; वह तो अपना कल्याण ही चाहता है। न्याय-कुसुमांजलिकार श्रीउदयनाचार्य जी नास्तिकों के लिये कल्याण-कामना करते हुए भगवान से प्रार्थना करते हैं-
महानुभावों को दूसरों को दुःख में देखकर खेद हुआ ही करता है। इसी से उदयनाचार्य जी ने जो नास्तिकमत का खण्डन किया है वह उन्हें भगवत्सुख से वंचित देखकर करुणावश ही किया है-द्वेष के कारण नहीं किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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