भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अतः प्रभु का ऐसा स्वभाव समझकर ही जीव उस समय उनसे प्रार्थना करता है कि भगवन अब मैं अवश्य आपके चरणों का समाश्रयण करूँगा। मैं आपको भूलकर बहुत भटक चुका हूँ, अब ऐसी भूल नहीं करूँगा। परन्तु गर्भ से बाहर आते ही वह फिर प्रभु को भूल जाता है। यदि थोड़ी सी विद्या या वैभव मिल गया, फिर तो सीधे-सीधे प्रभु का निराकरण करने लगता है। परन्तु भगवान तो उनका भी अमंगल नहीं चाहते। वे जानते हैं कि ‘ये अज्ञ हैं; मेरी माया से मोहित हो रहे हैं।’ इसी से यह प्रार्थना की जाती है कि ‘मैं ब्रह्म का निराकरण न करूँ और ब्रह्म मेरा निराकरण न करे।’ किन्तु भगवान का निराकरण न करना अपने हाथ की बात नहीं है। यह तो भगवत्कृपासाध्य ही है। वह भगवत्कृपा तभी हो सकती है जब हम भगवान की आज्ञा का पालन करें; और शास्त्र ही भगवान की आज्ञा है-
अतः सच्चा भगवत्प्रेमी वही है जो शास्त्र का उल्लंघन नहीं करता। वैष्णव र्धम का लक्षण करते हुए कहा है- “न चलति निजवर्णधर्मतो सममतिरात्मसुहृद्विपक्षपक्षे।” वस्तुतः भगवत्कृपा तो सर्वत्र समान रूप से विद्यमान है। उसे केवल अभिव्यक्त करना है और वह अभिव्यक्ति भगवदाज्ञा-पालन से ही हो सकती है। श्रीगोसाईं जी महाराज कहते हैं- ‘आज्ञा सम न सुसाहिब सेवा।’ जिस समय भरत जी भगवान को लौटाने के लिये चित्रकूट पर्वत पर गये उस समय उनका विशेष आग्रह देखकर भगवान ने कहा कि ‘भरत, तुम जैसा कहो वैसा ही करूँ।’ उस समय भरत जी ने यही सोचा कि मुझे अपने सुख-दुःख का विचार न करके भगवान की आज्ञा का ही प्राधान्य रखना चाहिये; क्योंकि सेवक का धर्म तो स्वामी की आज्ञा का पालन करना ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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