भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
अतः इधर अर्थवाद उपनी सार्थकता के लिये और विधि अपने में प्रवृत्ति होने के लिये उत्तप्त थे, उन्होंने ‘नष्टाश्वरथदग्धन्याय’[1] से परस्पर एक-दूसरे की कार्यसिद्धि की। अर्थवाद ने विधि की स्तुति करके विधि में रुचि उत्पन्न की और विधि ने अर्थवाद को अपने फल से फलवान् बना दिया। इसी प्रकार मन्त्रों की सार्थकता के विषय में भी प्रश्न होने पर उनका उपयोग द्रव्य और देवताओं के स्मारक होने में है यह समाधान किया जाता है। इस तरह विधि, निषेध, अर्थवाद और मन्त्र इन सभी का प्रामाण्य क्रियापरत्वेन ही है। इसी से भगवान श्रुतिस्वरूपा व्रजांगनाओं से कहते हैं कि अपने प्रामाण्य के लिये तुम अपने समुदाय को ही अनुगमन करो। जिस प्रकार तुम्हारा समुदाय क्रियापरक है उसी प्रकार तुम भी क्रियापरक हो जाओ, शुद्ध चैतन्यरूप सिद्ध वस्तु का प्रतिपादन मत करो। यदि कहा जाय कि हमारा अप्रामाण्य हो जाने दो तो ऐसा कथन भी ठीक नहीं; क्योंकि तुम सती-अपौरुषेय होने से सर्वदोष-विवर्जित हो, तुम्हें मीमांसकों का संग छोड़ना उचित नहीं है। कुछ ‘द्यावापृथिवी जनयन् देव एकः’ इत्यादि श्रुतियाँ कह सकती हैं कि मीमांसक तो हमारे स्वार्थ का ही अपलाप करते हैं, क्योंकि वे हमारे सर्वस्व परब्रह्म की सत्ता ही स्वीकार नहीं करते, फिर हमीं उनकी अपेक्षा क्यों करें? परन्तु यह विचार ठीक नहीं है। मीमांसक जो ईश्वर का खण्डन करते हैं वे केवल वेदनिर्मातृत्वेन उसे स्वीकार नहीं करते; क्योंकि नैयायिकों के मतानुसार अनुमानसिद्ध सर्वज्ञ ईश्वरकृत होने के कारण वेदों का प्रामाण्य है; और इधर ईश्वर के सर्वज्ञत्व का ज्ञान भी वेद से ही होता है। इस प्रकार वेद और ईश्वर इन दोनों में अन्योन्याश्रय दोष की प्राप्ति होती है। इसके सिवा एक दोष यह भी है कि जिन युक्तियों से अनुमान करके नैयायिक वेद निर्माता ईश्वर का सर्वज्ञत्व सिद्ध करते हैं, उन्हीं युक्तियों से बौद्ध, ईसाई और यवन लोग अपने धर्मग्रंथों के निर्माताओं को सर्वज्ञ सिद्ध कर सकते हैं। वेदान्त दर्शन के मत में भी ईश्वर की सिद्धि अनुमान से नहीं, बल्कि शास्त्र से ही होती है; जैसा कि ‘शास्त्रयोनित्वात्’, ‘तं त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामि’, ‘वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यः’ इत्यादि वाक्यों से सिद्ध होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ दो दाजा वन में गये हुए थे। उनमें से एक का घोड़ा मर गया और दूसरे का रथ नष्ट हो गया। वे आपस में मिल गये। उनमें से एक ने अपना रथ दिया और दूसरे ने घोड़ा। इस प्रकार परस्पर मिलकर वे उस वन से निकलकर सकुशल नगर में पहुँच गये। इसे ‘नष्टाश्वरथदग्धन्याय’ कहते हैं।
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