भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसी प्रकार वेदार्थ का ज्ञान गुरु से अध्ययन करने पर भी हो सकता है और व्युत्पन्नमति पुरुषों को स्वयं अपने बुद्धिबल से भी हो सकता है। इसी से यह विधि की गयी है कि ‘स्वाध्यायोऽध्येतव्यः’ अर्थात् गुरु परम्परा से ही अध्ययन करना चाहिये। इसी से वेदाध्ययन सार्थक होगा। वेदाध्ययन से वेदार्थ का ज्ञान होगा, तब वेदार्थ का अनुष्ठान किया जायगा और उससे स्वर्गादि की प्राप्ति होगी। इस प्रकार दृष्ट फल के साथ वह अदृष्ट फल का भी जनक होगा। ‘आम्नायस्य क्रियार्थत्वादानर्थक्यमतदर्थानाम्’ इस सूत्र के अनुसार अर्थवाद की सार्थकता न होने से अर्थवाद उत्तप्त हो रहा है और इसी प्रकार विधि भी उतप्त है; क्योंकि स्वभावतः विधि में लोगों की प्रवृत्ति नहीं होती। उसमें प्रवृत्ति होने के लिये उसकी स्तुति की आवश्यकता है। पहले यह पद्धति थी कि बड़े-बड़े राजा लोग सभाएँ कराया करते थे। उनमें शास्त्रार्थ होता था। वहाँ जो विद्वान् विजयी होता था उसका बहुत आदर-सत्कार किया जाता था। उस सम्मान के प्रलोभन से ही विद्वान् लोग न्याय, मीमांसा आदि शुष्क विषयों का भी अध्ययन करते थे। इस प्रकार जिस कर्म की महत्ता सत्पुरुषों में प्रसिद्ध होती है उसी में लोगों की प्रवृत्ति हुआ करती है। वैदिक एवं स्मार्त्त कर्मों में भी लोगों की तभी प्रवृत्ति हो सकती है जब लोग उन कर्मों को करने वालों का आदर करें। ऐसा तो कोई विरला ही विद्वान् होता है जो आदर आदि की अपेक्षा न रखकर कर्तव्य बुद्धि से ही शास्त्र रक्षा करे। यह बात अवश्य है कि ऐसे महानुभावों का भी सर्वथा अभाव नहीं है। इस समय यद्यपि अश्वमेध, राजसूय एवं अग्निष्टोम आदि यज्ञों को कोई नहीं पूछता तो भी ऐसे भी ब्राह्मण हैं जिन्होंने शुष्क इष्टियों द्वारा अश्वमेधादि कृत्यों का अभ्यास किया है और आवश्यकता पड़ने पर वे उनका अनुष्ठान करा सकते हैं। देखो, शास्त्र कह रहे हैं- ‘अहरहः सन्ध्यामुपासीत’, ‘अग्निहोत्रं जुहुयात्’, ‘स्वाध्यायोऽध्येतव्यः।’ किन्तु इन विधि वाक्यों से प्रेरित होकर आज कितने आदमी उनका पालन करते हैं? किन्तु जनता में हरिनाम-संकीर्तन की थोड़ी-सी महिमा प्रसिद्ध होने के कारण उसका प्रचार दिनों-दिन बढ़ रहा है। इससे सिद्ध हुआ कि विधि में प्रवृत्ति होने के लिये उसकी स्तुति की आवश्यकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज