भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
इसी से शास्त्ररक्षक का आदर भगवान् भी करते हैं। वे कहते हैं- ‘विप्रप्रसादाद्धरणीधरोऽहम्।’ अतः मीमांसक लोग वेद का प्रामाण्य ईश्वरकृत होने के कारण नहीं मानते। बल्कि अपौरुषेय होने के कारण मानते हैं। इसी से उन्होंने जो ईश्वर का खण्डन किया है वह इसलिये है कि उन्हें ईश्वरनिर्मितत्त्वेन वेद का प्रामाण्य इष्ट नहीं है। वह स्वतः प्रमाण है। उत्तर मीमांसा और पूर्व मीमांसा का यह सिद्धान्त है कि प्रमाण स्वतः प्रमाण हुआ करता है; उसका अप्रामाण्य परतः होता है। यदि प्रमाण का प्रामाण्य परतः माना जायगा तो जिस प्रमाण से उसका प्रामाण्य सिद्ध किया जायगा उसके प्रामाण्य की सिद्धि के लिये किसी तीसरे प्रमाण की अपेक्षा होगी और उनके प्रामाण्य के लिये चौथे प्रमाण की आवश्यकता होगी। इस प्रकार अनवस्था का प्रसंग उपस्थित हो जायगा। वेदातिरिक्त अन्य ग्रन्थों का भी प्रामाण्य तो स्वतः सिद्ध है किन्तु पौरुषेय और सादि होने के कारण उनका अप्रामाण्य परतः है। उनका पौरुषेयत्व और सादित्व तो उन्हीं से सिद्ध होता है। कोई भी पुरुष सर्वज्ञ नहीं हो सकता; अन्यथा अनेक सर्वज्ञ मानने पड़ेंगे। यदि अनेक सर्वज्ञ माने जायँ तो उनके कथन में विरोध नहीं होना चाहिये। परन्तु ऐसी बात है नहीं; जीवमात्र में अल्पज्ञत्व, सातिशयत्व और करणापाटव आदि दोष रहते ही हैं। इसलिये उनके रचे हुए ग्रन्थ भी प्रामाणिक नहीं हो सकते। जिस प्रकार अन्य ग्रन्थों का पौरुषेयत्व प्रदर्शित किया जा सकता है उस प्रकार वेद का पौरूषेयत्व सिद्ध नहीं किया जा सकता। यदि पूछा जाय कि इसमें प्रमाण क्या है? तो परोक्ष वस्तु के अभाव में तो प्रमाणाभाव ही पर्याप्त प्रमाण होता है। हम तो वेद के कर्ता का अभाव बतला रहे हैं, अतः उसके लिये किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। कहा जा सकता है कि ऐसे भी कितने ही ग्रन्थ हैं कि जिनके कर्ता का ज्ञान नहीं है; तो क्या उन्हें भी अपौरुषेय ही मानना चाहिये? इसमें हमारा कथन यह है कि उन ग्रन्थों की सम्प्रदाय-परम्परा का विच्छेद देखा जाता है, इसलिये वे अपौरुषेय नहीं हो सकते। किन्तु वेदों की सम्प्रदाय-परम्परा का विच्छेद नहीं हुआ, क्योंकि उसके विच्छेद में कोई प्रमाण नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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