- महाभारत शल्य पर्व के अंतर्गत 15वें अध्याय में संजय ने शल्य के साथ नकुल और सात्यकि आदि के साथ हुए घोर युद्ध का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
शल्य का पाडंव वीरों के साथ युद्ध
संजय कहते हैं- राजन! इधर शल्य सम्पूर्ण दिशाओं में बाणों की वर्षा करते हुए युद्ध में सात्यकि और भीमसेन सहित पाण्डवों को पीड़ा देने लगे। राजेन्द्र! वे युद्ध में यमराज के तुल्य पराक्रमी नकुल और सहदेव के साथ भी अपने पराक्रम और अस्त्रबल से युद्ध कर रहे थे। जब शल्य अपने बाणों से पाण्डव महारथियों को आहत कर रहे थे, उस समय महासमर में उन्हें कोई अपना रक्षक नहीं मिलता था। जब धर्मराज युधिष्ठिर शल्य की मार ये अत्यन्त पीड़ित हो गये, तब माता को आनंदित करने वाले शूरवीर नकुल ने बड़े वेग से अपने मामा पर आक्रमण किया। शत्रुवीरों का संहार करने वाले नकुल ने समरांगण में शल्य को शरसमूहों द्वारा आच्छादित करके मुस्कराते हुए उनकी छाती में बाण मारे। वे बाण सब-के-सब लोहे के बने हुए थे। कारीगर ने उन्हें अच्छी तरह माँज-धोकर स्वच्छ बनाया था। उनमें सोने के पंख लगे थे और उन्हें सान पर चढ़ाकर तेज किया गया था। वे दसों बाण धनुषरूपी यन्त्र पर रखकर चलाये गये थे। अपने महामनस्वी भानजे के द्वारा पीड़ित हुए शल्य ने झुकी हुई गाँठवाले बहुसंख्यक बाणों द्वारा नकुल को गहरी चोट पहुँचायी।
तदनन्तर राजा युधिष्ठिर, भीमसेन, सात्यकि और माद्रीकुमार सहदेव ने एक साथ मद्रराज शल्य पर आक्रमण किया। वे अपने रथ की घर्घराहट से सम्पूर्ण दिशाओं और विदिशाओं को गुँजाते हुए पृथ्वी को कम्पित कर रहे थे। सहसा आक्रमण करने वाले उन वीरों को शत्रुविजयी सेनापति शल्य ने समरभूमि में आगे बढ़ने से रोक दिया। माननीय नरेश! मद्रराज शल्य ने युद्धस्थल में युधिष्ठिर को तीन, भीमसेन को पांच, सात्यकि को सौ और सहदेव को तीन बाणों से घायल करके महामनस्वी नकुल के बाणसहित धनुष को क्षुरप्र से काट डाला। शल्य के बाणों से कटा हुआ वह धनुष टूक-टूक होकर बिखर गया। इसके बाद माद्रीपुत्र महारथी नकुल ने तुरन्त ही दूसरा धनुष हाथ में लेकर मद्रराज के रथ को बाणों से भर दिया। आर्य! साथ ही युधिष्ठिर और सहदेव ने दस-दस बाणों से उनकी छाती छेद डाली। फिर भीमसेन ने साठ और सात्यकि ने कंकपत्रयुक्त दस बाणों से मद्रराज पर वेगपूर्वक प्रहार किया।
शल्य का अद्भुत पराक्रम
तब कुपित हुए मद्रराज शल्य ने सात्यकि को झुकी हुई गाँठवाले नौ बाणों से घायल करके फिर सत्तर बाणों द्वारा क्षत-विक्षत कर दिया। मान्यवर! इसके बाद शल्य ने उनके बाण सहित धनुष मुट्ठी पकड़ने की जगह से काट दिया और संग्राम में उनके चारों घोड़ों को भी मौत के घर भेज दिया। सात्यकि को रथहीन करके महारथी मद्रराज शल्य ने सौ बाणों द्वारा उन्हें सब ओर से घायल कर दिया। कुरुनन्दन! इतना ही नहीं, उन्होंने क्रोध में भरे हुए माद्रीकुमार नकुल-सहदेव, पाण्डुपुत्र भीमसेन तथा युधिष्ठिर को भी दस बाणों से क्षत-विक्षत कर दिया।[1] उस महान संग्राम में हम लोगों ने मद्रराज शल्य का यह अद्भुत पराक्रम देखा कि समस्त पाण्डव एक साथ होकर भी इन्हें युद्ध में पराजित न कर सके।
शल्य का सात्यकि के साथ युद्ध
तत्पश्चात सत्यपराक्रमी सात्यकि ने दूसरे रथ पर आरूढ़ होकर पाण्डवों को पीड़ित तथा मद्रराज के अधीन हुआ देख बड़े वेग से बलपूर्वक उन पर धावा किया। युद्ध में शोभा पाने वाले शल्य उनके रथ को अपनी ओर आते देख स्वयं भी रथ के द्वारा ही उनकी ओर बढे़। ठीक उसी तरह, जैसे एक मतवाला हाथी दूसरे मदमत्त हाथी का सामना करने के लिये जाता है। शूरवीर सात्यकि और मद्रराज शल्य इन दोनों का वह संग्राम बड़ा भयंकर अद्भुत दिखायी देता था। वह वैसा ही था, जैसा कि पूर्वकाल में शम्बासुर और देवराज इन्द्र का युद्ध हुआ था। सात्यकि ने समरांगण में खड़े हुए मद्रराज को देखकर उन्हें दस बाणों से बींध डाला और कहा-खडे़ रहो, खडे़ रहो। महामनस्वी सात्यकि के द्वारा अत्यन्त घायल किये हुए मद्रराज ने विचित्र पंखवाले पैंने बाणों से सात्यकि को भी घायल करके बदला चुकाया।[2]
तब महाधर्नुधर पृथापुत्रों ने सात्यकि के साथ उलझे हुए मामा मद्रराज शल्य के वध की इच्छा से रथों द्वारा उन पर आक्रमण किया। फिर तो वहाँ घोर संग्राम छिड़ गय। सिंहों के समान गर्जते और जूझते हुए शूरवीरों का खून पानी की तरह बहाया जाने लगा। महाराज! जैसे मांस के लोभ से सिंह गर्जते हुए आपस में लड़ते हों, उसी प्रकार उस युद्धस्थल में उन समस्त योद्धाओं का एक-दूसरे के प्रति भयंकर प्रहार हो रहा था। उस समय उनके सहस्रों बाणसमूहों से रणभूमि आच्छादित हो गयी आकाश भी सहसा बाणमय प्रतीत होने लगा। उन महामनस्वी वीरों के छोडे़ हुए बाणों से सहसा चारों ओर अन्धकार छा गया। मेघों की छाया-सी प्रकट हो गयी। राजन! केचुल छोड़कर निकले हुए सर्पों के समान वहाँ छूटे हुए सुवर्णमय पंखवलो चमकीले बाणों से उस समय सम्पूर्ण दिशाएँ प्रकाशित हो उठी थीं। उस रणभूमि में शत्रुसूदन शूरवीर शल्य ने यह बड़ा अद्भुत पराक्रम किया कि अकेले ही वे उन बहुसंख्यक वीरों के साथ युद्ध करते रहे। मद्रराज की भुजाओं से छूटकर गिरने वाले कंक और मोर की पाँखों से युक्त भयानक बाणों द्वारा वहाँ की सारी पृथ्वी ढक गयी थी। राजन! जैसे पूर्वकाल में असुरों का विनाश करते समय इन्द्र का रथ आगे बढ़ता था, उसी प्रकार उस महासमर में हम लोगों ने राजा शल्य के रथ को विचरते देखा था।[2]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
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