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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा?
जब एक देह वाले भगवद्भक्त ज्ञानी की ऐसी स्थिति है, तब अननतकोटि ब्रह्माण्डनायक भगवान का तो कहना ही क्या है। उसके तो अपरिगणित देह हैं और वह महाज्ञानी सर्वत्र असंग और अभिमान शून्य है। वह किसी के सम्मान या अपमान में किस तरह क्षुब्ध हो सकता है? भावुक लोग शास्त्रों के आज्ञानुसार उसकी अनन्तानन्त प्रतिमाओं का निर्माण कर मन्त्रों से आवाहन, प्रतिष्ठापनादि द्वारा उसकी आराधना करते हैं और अपने कर्म के अनुसार ही यथाकाल फल पाते हैं। शास्त्र के अनुसार मन्त्रों एवं आराधनाओं के अनुसार पूजा-ग्रहण करने और फल देने के लिये ही भगवान का उन मूर्तियों में प्राकट्य होता है। कोई उन मूर्तियों का अपमान करके भगवान का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता है। जिस तरह सूर्य पर निष्ठीवन करने से वह सूर्य पर न जाकर अपने ही ऊपर पड़ेगा, आकाश पर मुष्टिप्रहार या तलवार का चलाना बेकार है, वैसे ही भगवान पर प्रहार या उनकी मूर्तियों का तोड़ना बेकार है। अनन्त मूर्तियों में रहने वाले भगवान विश्वमूर्ति एवं अमूर्ति भगवान इतने उदार और क्षमाशील तो हैं कि मूर्ति तोड़ने वालों के कर्म ही उन्हें फल देते हैं। साधारण व्यक्ति जैसे असहिष्णु कोई भी शासक नहीं होते, फिर परमेश्वर की तो बात ही दूसरी है। किन्हीं कर्मों के फल अवसर के अनुसार ही होते हैं। ‘ओडायर’ की हत्या करने वाला व्यकक्ति तत्काल ही पकड़ लिया गया था, परनतु तत्क्षण ही उसे फाँसी नहीं दी गयी, न गोली से उड़ा दिया गया। बाकायदे न्यायालय में न्याय हुआ। फिर दण्ड निश्चित हुआ। यथाकाल दण्ड दिया गया। जब प्राकृत शासकों में इतनी सहिष्णुता और काल-प्रतीक्षा होती है, तब फिर परमेश्वर ही सहिष्णु और काल प्रतीक्षक क्यों न हों? सम्राट, स्वराट, विराट या गवर्नर, कमिश्नर आदि कोई भी अपने अपमान करने वाले व्यक्ति को, स्वयं पकड़ने या तत्क्षण दण्ड देने में नहीं प्रवृत्त होते, किन्तु उनके कर्मचारी लोग ही उसे पकड़ने में प्रवृत्त होते हैं। वे ही न्यायाध्यक्ष का न्याय पाकर यथाकाल दण्ड देते हैं। इसी तरह ईश्वर की मूर्तियों का अपमान करने वालों को तत्क्षण ही परमेश्वर दण्ड नहीं देता, किन्तु उसके कर्मचारी ही यथाकाल दण्ड देते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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