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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा?
कोई भी अनुष्ठान, पूजन, भजन आदि तीव्र संवेग से युद्ध प्रयोक्ता द्वारा सुचारू रूप से किया जाय, तो वह अवश्य सफल होता है। जहाँ कहीं विफलता होती है, वहाँ उपर्युक्त त्रुटियों की ही कल्पना उचित है। अनुष्ठानादि में अविश्वास उचित नहीं है। नैयायिकों ने भी शास्त्रों के कुछ कर्मों की विफलता देखकर उनमें कर्तृ-क्रियादि वैगुण्य की ही कल्पना की है। जो कहा जाता है कि ‘सोमनाथ आदि के मन्दिर तोड़ने वालों को कुछ भी दण्ड न मिला’ सो ठीक ही है। एक बार काशी के एक योग्य विद्वान ने मुझसे कहा कि ‘आज दुर्गा जी की चाँदी की आँखों को चोर चुरा ले गये। महाराज! यदि दुर्गा जी से अपने ही आँख की रक्षा न हुई, तब वे हम सबकी रक्षा कैसे कर सकेंगी?’ किसी एक और व्यक्ति ने शिव जी पर चढ़े हुए अक्षत या फलों को ले जाती हुई मूषिका को देखकर यह समझ लिया था कि ‘मूर्तिपूजा व्यर्थ है, मूर्ति में देवत्व नहीं है।’ ऐसी बातों पर विचार करने से विदित होता है कि यह कितनी मोटी दृष्टि की बात है। व्यापक परब्रह्म परमात्मा सर्वत्र ही रहता है, सम्पूर्ण विश्व उन्हीं में रहता है। सोना, उठना, बैठना सम्पूर्ण कर्म उन्हीं में होता है। जिस तरह गर्भस्थ बालक की सम्पूर्ण चेष्टाएँ माँ के गर्भ में ही होती हैं, फिर भी माता कुपित नहीं होती। वैसे ही जीवों की अनेकों हलचलें उसी परमात्मा में होती हैं, ‘क्षमाशील परमात्मा सबको ही सहन करता है।’
ब्रह्मा जी कहते हैं- ‘हे अधोक्षज! गर्भगत बालक के पादोत्क्षेपण को जननी क्या अपराध मानती है? यदि नहीं, तो अस्तिनास्ति व्यपदेश से भूषित यह सम्पूर्ण विश्व क्या आपकी कुक्षि से बाहर है?’ भगवद्ध्यान के प्रभाव से एक ज्ञानी प्राणी भी देहाभिमानशून्य होता है। उसके एक बाहु में कोई कण्टक चुभाता है, दूसरे बाहु में कोई चन्दन-लिम्पन करता है। वह उतना उदार, सहनशील एवं देहाभिमानशून्य होता है कि न अनुकूलाचरण वालों पर प्रहृष्ट हो, न प्रतिकूलाचरण वालों पर कुपित हो। फिर भी अपने-अपने कर्तव्य के अनुसार ही उन सबको यथा समय फल मिलता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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