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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
क्या ईश्वर और धर्म बिना काम चलेगा?
कितने ही अज्ञ कहा करते हैं कि ‘यदि परमेश्वर सर्वशक्तिमान हो, तो मैं उसे गाली देता हूँ, उसकी मूर्ति को तोड़ता हूँ, मेरे सामने आये या मेरा मुँह बन्द कर दे।’ परन्तु सोचना यह चाहिये कि यदि बड़े-बड़े तपस्वी युगयुगान्तरों, कल्प-कल्पान्तरों की तपस्या के पश्चात उसका दर्शन पाते हैं, अनन्त तपस्याओं से उसका अस्तित्व निर्णय कर पाते हैं फिर वह इन अज्ञों के कहने मात्र से कैसे प्रकट हो या उनके कथनानुसार उनका मुँह कैसे बन्द करे? क्या किसी सम्राट को ऐसा कहने पर वह प्रवृत्त होगा? वस्तुतः जैसे सावधान पुरुष उन्मादी या बालक की बातों पर ध्यान न देकर उस पर कृपा ही करता है, वैसे परमेश्वर भी कृपा ही करते हैं, ‘जो करनी समुझें प्रभु मोरी। नहिं निस्तार कल्प सतकोरी।’ द्वित, त्रित आदि महर्षियों ने किसी यज्ञ में भगवान को प्रकट करने की प्रतिज्ञा कर ली, परन्तु जब भगवान प्रकट हुए तब वे शाप देने को प्रस्तुत हुए, इस पर ऋषियों ने समझाया कि वे प्रभु भक्ति से ही प्रकट हो सकते हैं, अहंकार से नहीं। अतः ऐसा करना साहस है। हिरण्यकशिपु आदि को भी मारने के लिये भगवान का प्रह्लाद की भावना से प्राकट्य हुआ। “सहे सुरन्ह बड़ काल विषादू। नरहरि प्रकट कीन्ह प्रह्लादू।।” इसके अतिरिक्त वे भगवान के नित्यपार्षद हैं, भगवान की लीला के अंग होकर ही उनका जन्म था। इसलिये उनके लिये भगवान का प्राकट्य ठीक है, परन्तु साधारण जन्तुओं के लिये तो वैसा ही होगा, जैसे मच्छर को मारने के लिये तोप का दागना। जिन कीटों को भगवान की कोई भी शक्ति पूर्ण दण्ड दे सकती है, उनके कहने से भगवान का प्रकट होना अत्यन्त ही अनुपयुक्त है। इसलिये मूर्तितोड़कों को दण्ड देने के लिये भगवान का प्राकट्य नहीं हुआ और न कोई चमत्कारपूर्ण तात्कालिक घटना घटी। चींटी, मूषिका आदि की प्रवृत्ति अज्ञानपूर्विका होती है, चौरादि में भी अज्ञान की ही बहुलता है। अतः उनकी स्थिति क्षम्य ही है; किन्तु विद्वेषाभिनिविष्टचेताओं को यथाकाल दण्ड भोगना पड़ा ही। सुना जाता है, औरंगजेब ने मरते समय अपने पुत्र को पत्र लिखकर अपना दुःख बड़े दैन्यपूर्ण शब्दों में निवेदन किया और सोमनाथ के मन्दिर को तोड़ने वाला महमूद गजनवी मरने के समय अपने सामने सोने-चाँदी का ढेर लगवाकर (जिसे वह लूट लाया था) खूब रोया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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