विषय सूची
भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
[वि. संवत् 2000 में पूज्य श्री स्वामीजी महाराज वृन्दावन में चातुर्मास्य कर रहे थे, उस समय ‘रासपंचाध्यायी’ के द्वितीयाध्याय से आपका प्रवचन प्रारम्भ हुआ था। प्रस्तुत प्रकरण उसी समय का संग्रहीत है। यद्यपि इसमें श्रीमहाराज जी की प्रौढ़ शब्दावली और भावगाम्भीर्य का तो यथावत् संग्रह नहीं हो पाया है, तथापि प्रकरण अत्यन्त उपयोगी होने के कारण ‘भक्तिसुधा’ के पाठकों के लिये प्रस्तुत किया गया है।] -संपादक
भगवान भक्तपराधीन हैं। वे अपनी सर्वज्ञता, सर्वशक्तिमत्ता आदि को भूलकर भक्तों के पीछे घूमते हैं। परन्तु गर्व से उन्हें बड़ी शत्रुता है। वे अपने भक्तों में गर्व नहीं आने देना या रहने देना चाहते। जहाँ गर्व रहेगा भगवान वहाँ स्वयं न रहेंगे। भगवान को अपने अत्यन्त अनुकूल पाकर गोपियों को गर्व हो गया। उसे दूर करने के लिये भगवान अन्तर्हित हुए। गोपियों को भगवान के दर्शन और स्पर्श का जो बाह्य सुख मिल रहा था वह नहीं रहा। भगवान वहाँ से कहीं चले नहीं गये, अपितु गोपियों के मन, बुद्धि, प्राण, अन्तःकरण आदि में प्रविष्ट हुए। श्रीमद्वल्लभाचार्य जी कहते हैं- ‘वे कैसे अन्तःप्रविष्ट हुए, उसका क्या प्रकार था’ वह व्रजांगना जान न सकीं। वे क्यों न जानती थीं, क्योंकि वे व्रजांगना थीं, अतः नहीं जानती थीं। अर्थात् जन्म से, बाल्यकाल से ही वे भगवान को बाह्य मूर्ति के ही रूप में देखा करती थीं। अतः जब आज उन्हें नहीं देखा तो वे दुःखी हुईं। व्रजवासियों पर दया करके विषमता को मिटाकर भगवान व्रज में प्रकट हुए- “तास्ताः क्षपाः प्रेष्ठतमेन नीता मयैव वृन्दावनगोचरेण।” जो अनन्त अचिन्त्य अलक्ष्य अव्यपदेश्य निर्विकार तत्त्व है-वह वृन्दावन में गोपाल, गोचारक बना। जिसे अष्टांगयोगयुक्त योगी नहीं प्राप्त कर सकते वह यहाँ प्रकटा। बात यह है कि अत्यन्त वैजात्य में प्रीति नहीं होती। मनुष्य रूपहीन, स्पर्शहीन, रसहीन, गन्धहीन अचिन्त्य अग्राह्य में कैसे प्रीति करे? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भाग. 10 स्क. 30 अ. 1 श्लोक
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज