भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
यह सम्पूर्ण प्रकृति चिद्रूप श्रीकृष्ण के ही चारों ओर घूम रही है। आजकल वैज्ञानिकों का भी मत है कि एक ग्रह दूसरे ग्रह के आश्रित होकर गति कर रहा है। इस प्रकार सारा ही ब्रह्माण्ड गतिशील है। यही प्रकृति का नित्य नृत्य है। यदि आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करें तो हमारे शरीर में भी भगवान की यह नित्यलीला हो रही है। हमारा प्रत्येक अंग गतिशील है, हाथ, पाँव, जिह्वा, मन, प्राण सभी नृत्य कर रहे हैं। इन सबका आश्रय और आराध्य केवल शुद्ध चेतन ही है। यह सारा नृत्य उसी की प्रसन्नता के लिये है; और वही नित्य एकरस रहकर इन सबकी गति-विधि का निरीक्षण करता है। जब तक इनके बीच में वह चैतन्य रूप कृष्ण अभिव्यक्त रहता है तब तक तो यह रास रसमय है; किन्तु उसका तिरोभाव होते ही यह विषयम हो जाता है। इसी प्रकार गोपांगनाएँ भी भगवान के अन्तर्हित हो जाने पर व्याकुल हो गयी थीं। अतः इस संसाररूप रासक्रीड़ा में भी जिन महाभागों को परमानन्दकन्द श्रीव्रजचन्द्र की अनुभूति होती रहती है, उनके लिये तो यह आनन्दमय ही है। अहो! यह संसार तो अब भी प्रभु का वृन्दारण्य ही है। यहाँ वही चन्द्र छिटक रहा है, वही यमुना है और वही मन्द-सुगन्ध सुशीतल समीर बह रहा है। तथापि आज श्रीकृष्णचन्द्र के ओझल हो जाने से इन जीवरूप गोपांगनाओं के लिये यह दुःखमय ही हो रहा है। यदि वह दीखने लगें तो फिर यही परम आनन्दमय हो जाय। देखो, इस रास रस की प्राप्ति के लिये गोपांगनाओं ने स्वधर्मानुष्ठान करते हुए श्रीकात्यायिनी देवी की आराधना की थी। अतः हमें भी भगवत्संयोग सुख की प्राप्ति के लिये स्वधर्म-पालन में ही तत्पर रहकर भगवान की उपासना करनी चाहिये। जब तक जीव परब्रह्म श्रीकृष्णचन्द्र से वियुक्त रहता है तब तक उसे शान्ति नहीं मिलती। अतः जीव का परम पुरुषार्थ प्रभु की प्राप्ति ही है। इसके लिये हमें भगवान के किसी भी स्वरूप की उपासना करनी चाहिये। भगवान विष्णु, शिव, श्रीकृष्ण, रामभद्र, दुर्गा- ये सब भगवद्विग्रह ही हैं। साम्प्रदायिक पक्षपात के कारण इनमें से किसी के प्रति भी द्वेष-दृष्टि नहीं करनी चाहिये। अपने इष्टदेव का प्रेमपूर्वक पूजन करो। इसके लिये उनके स्वरूप और उपासना विधि का ज्ञान प्राप्त करो तथा यह भी मालूम करो कि उनकी उपासना में क्या-क्या प्रतिबन्ध हैं। प्रतिबन्ध कुपथ्य रूप हैं, उनसे बचने की बहुत आवश्यकता है। यदि कुपथ्य करते हुए चन्द्रोदय जैसी औषधि का भी सेवन किया जाय तो भी लाभ होना सम्भव नहीं है। इसलिये उपासना मार्ग के प्रतिबन्धों से सर्वदा सतर्क रहो। ‘स्वधर्माचरणं शक्त्या विधर्माच्च निवर्तनम्’- इस वाक्य के अनुसार सर्वदा स्वधर्म का तो यथाशक्ति पालन करो, किन्तु विधर्म का तो सर्वथा त्याग कर दो। यदि साथ-साथ विधर्म रूप कुपथ्य का त्याग और स्वधर्म रूप पथ्य का सेवन न किया जायगा तो यथेष्ट लाभ होना कदापि सम्भव नहीं है। ऐसी अवस्था में सारी औषधि निष्फल हो जायगी। इस प्रकार यदि कोई पुरुष स्वधर्म-पालन और विधर्म-विसर्जनपूर्वक भगवान की उपासना करता है तो उसे ब्रह्मसंस्पर्श अवश्य प्राप्त हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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