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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री रासपञ्चाध्यायी
यद्यपि अचिन्त्य अग्राह्य निर्विकार श्रीभगवान ने भक्तानुग्रहार्थ, नृसिंह, वराह, कच्छपादि अवतार धारण किये, परन्तु उनकी महामहिमा, महान् ऐश्वर्य को देखकर अपने से असमान होने के कारण मानव-हृदय उनसे स्वच्छन्द अनुराग करने में और भी असमर्थ रहा। पहले तो अचिन्त्य, अग्राह्य आदि होने से ही प्रेम दुर्घट रहा, फिर कच्छपादि में भी महामहिमा आदि के कारण वहाँ भी वह दुर्लभ ही रहा। अतः भक्तवत्सल भगवान चतुर्भुज मानव रूप में अवतीर्ण हुए। परन्तु इस रूप में भी चतुर्भुजरूप और ऐश्वर्यातिशय के कारण मनुष्य को कुछ संकोच ही रहा, वह पूरा-पूरा हृदय उनके समक्ष न खोल सका। तब प्रभु ठीक-ठीक मानवाकार श्रीराम रूप में अवतीर्ण हुए, परन्तु यहाँ भगवान मर्यादा पुरुषोत्तम बन गये। अतः इस रूप में भी मर्यादापूर्ण लोग अथवा साधारण जीव प्रीति करते डरते रहे। ऐश्वर्य में भी संकोच बना ही है। इसलिये वह अचिन्त्यैश्वर्य जगदाधार भगवान गोप और गोपियों के साजात्य सम्बन्ध को लेकर गोपाल रूप में अवतीर्ण हुए और सभी के निःसंकोच परप्रेमास्पद बन गये। जब भगवान कृष्ण मथुरा में आ गये तब गोपबाला अधिक वियोग सन्तप्त हुई। किसी ने कहा- “मथुरा क्या दूर है, नहीं रहा जाता तो जाओ वहीं दर्शन कर आओ।’ सब तो नहीं पर कुछ व्रजांगना किसी समय मथुरा भी गयीं, परन्तु वहाँ श्रीमथुरानाथ का वैभव देखकर, उनके शौर्य, वीर्य, ओज, तेज को देखकर उन्होंने घूँघट निकाल लिया, कहने लगीं-ये हमारे प्रभु प्राणधन श्यामसुन्दर नही हैं। नख से शिख तक रत्नजटित सौवर्णाभरणधारी सम्राट, ये हमारे प्रभु नहीं हैं। हमारे तो वे मयूरपिच्छ, गुंजावतंस, पीताम्बर, लकुटीकम्बलधारी व्रजविहारी प्रभु हैं। अर्थात् ऐश्वर्य में उन्हें संकोच हुआ, वे तो अपने साजात्य में प्रेम करती रहीं। अभिप्राय यह कि-साजात्य में निःसंकोच प्रणय होता है, अतः भगवान गोचारण करते प्रकटे। जीव अल्पज्ञ है, अल्पशक्ति है, अकिंचन है और प्रभु सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् हैं। ऐसे महान् अन्तर में जीव की कैसे गति हो, वह उन्हें कैसे प्राप्त करे? एक दीन-हीन भिक्षुकी, महाराजाधिराज से, सम्राट से, सम्मिलन की सम्भावना भी कैसे कर सकती है? परन्तु यों निराश होना ठीक नहीं, अपितु उत्कट आशा बनाये रखनी चाहिये, तब शीघ्र ही दर्शन मिलता है। यद्यपि आशा दोष है, त्याज्य कोटि में है, परन्तु प्रभुसम्मिलन की आशा महापुण्यों का फल है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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