भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
“मनसो ह्यमनीभावे द्वतं नैवोपलभ्यते।” अतः प्रपंच की प्रतीति और उसके कारण इन्द्रियों के क्रन्दन का हेतु तुम्हीं हो। जिस प्रकार महासमुद्र में वायु के योग से कुछ हलचल होने पर ही तरंग माला का प्रादुर्भाव होता है उसी प्रकार बुद्धि के स्फुरण से ही चितसमुद्र में कुछ हलचल होती है। इसीका नाम मन है। योगवासिष्ठ में कहा है-
अतः थोड़ी सी मननी शक्ति को धारण करने पर परब्रह्म ही मनरूप से प्रादुर्भूत होता है। किन्तु मन की वह मननी शक्ति क्या है? यदि हम इस बात का विचार करें कि तरंग क्या है तो यही निश्चय होगा कि वस्तुतः वह समुद्र ही है। वायु के कारण ही उसकी पृथक प्रतीति होती है। इसी प्रकार मन भी मायाशक्ति के कारण ही अपने अधिष्ठान-रूप परब्रह्म से पृथक प्रतीत होता है। अतः चित्त का जगत-सम्बन्ध स्फुरण ही मननी शक्ति है, वस्तुतः व्यावहारिक जगत में स्फुरण ही चित् का चित्तत्त्व है, वही सृष्टि का बीज है, उसी को भगवान का ईक्षण, संकल्प अथवा आदि संवेदन कहकर भी पुकारा जाता है। मन साक्षीभास्य माना जाता है। उसकी कभी अज्ञात सत्ता नहीं रहती। जिस प्रकार समुद्र के बिना तरंग की सत्ता नहीं होती उसी प्रकार शुद्ध चेतन से भिन्न मन नहीं है। यदि मननी शक्ति का निरोध हो जाय तो चित्त चित् हो जाता है। वस्तुतः चित् तकार-रहित चित्त ही है। योगवासिष्ठ में कहा है- “चिततं चिद्विजानीयात्तकाररहितं यदा।” यह तकार ही चंचलता है। इस चंचलता के कारण ही नित्य-शुद्धबुद्ध निर्विकार ब्रह्म में प्रपंच की प्रतीति हुई है। इसकी निवृत्ति होने पर तो मन का मनस्त्व ही नहीं रहता। फिर तो यह प्रपंच ब्रह्म ही हो जाता है; क्योंकि वास्तव में तो अन्वय व्यतिरेक से ब्रह्म ही है ब्रह्म की सत्ता से ही इसकी सत्ता है, ब्रह्म को छोड़कर तो इसकी सत्ता ही नहीं है। माया या अज्ञान भी अधिष्ठान से भिन्न नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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