भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीरासलीलारहस्य
श्रीगोसाईं तुलसीदास जी कहते हैं- जिस प्रकार काष्ठ में अनेकों पुतलियाँ और कपास में तरह-तरह के वस्त्र निहित हैं उसी प्रकार चित्त में ही सारा प्रपंच है। यदि चित्त स्वाधीन हो जाय तो भले ही संसार के सारे पदार्थ बने रहें उनसे अपना क्या हानि-लाभ होता है? इस विषय में एक गाथा है- एक राजा अश्वमेध यज्ञ कर रहा था। यज्ञीय अश्व छोड़ा गया, बहुत से सैनिक अश्व की रक्षा करने चले। उस अश्व को एक मुनि कुमार ने पकड़ लिया और उस सारी सेना को जीतकर वह उसे लेकर एक शिला में घुस गया। यह अद्भुत व्यापार देखकर बचे-खुचे सैनिकों को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने जाकर सारा हाल राजा को सुना दिया। राजा ने उस अश्व को लाने के लिय कुछ आदमियों के साथ अपने भाई को भेजा। वह राजकुमार जब उस स्थान पर पहुँचा तो एक शिला के सिवा वहाँ और उसे कुछ भी न मिला। उसने सोचा कि यहाँ अवश्य कुछ मुनि श्रेष्ठ होंगे; उन्हीं से इस लीला का रहस्य खुल सकेगा। इधर-उधर खोजने पर उसे एक महात्मा दिखाई दिये। महात्मा समाधिस्थ थे। राजकुमार तन-मन से उनकी सेवा-शुश्रूषा करने लगा। परन्तु उनका समाधि से उत्थान न हुआ। कुछ काल पश्चात् उसकी सच्ची लगन देखकर वही मुनि कुमार प्रकट हुआ और उसे वह यज्ञीय घोड़ा दे दिया। राजकुमार ने वह अश्व तो दूसरे मनुष्यों के साथ राजधानी को भेज दिया और स्वयं वहीं रह गया। तब मुनि कुमार ने पूछा ‘राजन! तुम क्या चाहते हो?’ राजकुमार ने कहा- ‘भगवन्, मेरी यही इच्छा है कि इन मुनि श्रेष्ठ का समाधि से व्युत्थान हो।’ इस पर मुनि कुमार ने कहा- ‘ऐसा होना तो बहुत कठिन है; क्योंकि इस समय ये स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों शरीरों का अतिक्रमण कर केवल सत्ता मात्र परब्रह्म के साथ एकीभाव से स्थित हैं। तथापि मैं प्रयत्न करता हूँ।’ ऐसा कहकर मुनि कुमार समाधिस्थ हो गया। उसने तीनों शरीरों से सम्बन्ध छोड़कर सन्मात्र में स्थित हो मुनिवर के सन्मात्र तत्त्व में स्थित आत्मा को उद्बुद्ध किया। इससे मुनि की समाधि खुल गयी। मुनिवर ने राजकुमार और समाधिस्थ मुनि कुमार को देखा तथा योगबल से सारा रहस्य जानकर मुनि कुमार को उद्बुद्ध किया। फिर राजकुमार ने मुनिवर से प्रार्थना की- ‘भगवन्! आप मुझे अपना परिचय देकर कृतार्थ करें और ये मुनि कुमार हमारा अश्व लेकर किस प्रकार इस शिला में घुस गये थे यह सब रहस्य बतलाने की कृपा करें।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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