भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
यद्यपि ‘‘सर्व खल्विदं ब्रह्म’’ इत्यादि श्रुति के अनुसार सब कुछ चिन्मात्र ब्रह्म ही है, तथापि भक्तों के चित्तावलम्बन के लिये अनेक प्रकार के स्वरूपों का उपदेश किया गया है। मलिन, शुद्ध शुद्धतर, शुद्धतम आदि उपाधियों का उपदेश किया गया है। जैसे पात्र, मणि, कृपाण, दर्पणादि में शुद्धि के तारतम्य से प्रतिबिम्बित- प्रतिफलन में तारतम्य होता है, वैसा ही उपाधियों के तारतम्य से ब्रह्म के प्रसाद, प्राकट्य में भी तारतम्य होता है। इसी अभिप्राय से विभूतियों की उत्कृष्ठता, उत्कृष्टतरता आदि का व्यवहार शास्त्रों में प्रसिद्ध है। एक-एक गुणों की अपेक्षा गुणों की साम्यावस्था उत्कृष्ठ है। इसीलिये भगवती की उपासना परमोत्कृट है। इसके अतिरिक्त ब्रह्म का प्रथम सम्बन्ध माया के ही साथ है। गुणों का सम्बन्ध माया द्वारा है। इसीलिये साम्यावस्था में ब्रह्म का अव्यवहित सम्बन्ध है। अत एवं ‘सूत-संहिता’ में कहा गया है। ‘‘परतत्त्वप्रकाशस्तु रुद्रस्यैव महत्तरः।’’ फिर भी ब्रह्मतत्त्व सर्वत्र ही समान है। इसीलिये सभी में परमकारणत्व का व्यपदेश सर्वत्र मिलता है। कामार्थी, मोक्षार्थी सभी के लिये भगवती की उपासना परमावश्यक है। वही ब्रह्मविद्या है, वही जगज्जननी है, उसी से सारा विश्व व्याप्त है, जो उसकी पूजा नहीं करता, उसके पुण्य को माता भस्म कर देती है-
अर्थात वह भगवती सर्वचैतन्यरूपा अर्थात सर्वात्मस्वरूपा है, सबका प्रत्यक-चैतन्य आत्मस्वरूप ब्रह्म वही है, वह स्वतः सर्वोपाधिनिरपेक्ष तथा अखण्ड बोधस्वरूप आत्मा ही है। ब्रह्मविषयक शुद्धसत्त्वान्तर्मुख वृत्ति पर प्रतिबिम्बत होकर वही अनादि ब्रह्मविद्या है। एक ही शक्ति अन्तर्मुख होकर विद्यातत्त्वरूपिणी होती है, तदुपाधिक आत्मा ‘तुरीय’ कहलाता है। बहिर्मुख होकर वही ‘अविद्या’ कहलाती है, तदुपाधिकक आत्मा ‘प्राज्ञ’ है। मायाशबल ब्रह्म ही ध्यान का विषय है, वही बुद्धिप्रेरक है। शाक्ता-गममतानुयायियों की दृष्टि से अत्यन्त अन्तर्मुख होकर शक्ति शिवस्वरूप ही रहती है। वेदान्त दृष्टि से सर्वोपाधिविनिर्मुक्त स्वप्रकाश चिति ही रहती है। वही परब्रह्म, आत्मा आदि शब्दों से लक्षित होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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